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Anurag Kashyap Thakur

Others

3.3  

Anurag Kashyap Thakur

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कॉलेज का आखरी दिन।

कॉलेज का आखरी दिन।

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दिन, सप्ताह, महीना, साल और आज हमारे कॉलेज के चार वर्ष समाप्त हो गए। इन चार वर्षों में हमने क्या क्या नहीं किया।

    आये दिन किसी न किसी बात पे धरने देना तो हमारी आदत थी। नये प्राचार्य का स्वागत भी हम हड़ताल से करते थे और हड़ताल को उत्सव की तरह मनाते थे।

     महाराणा प्रताप और शिवजी से प्रेरणा लेकर हमने भी कई लड़ाई की और इन्कलाब कहते हुये कॉलेज प्रशासन के सामने खड़े भी हो गये। पुरे चार साल हम कॉलेज में कमियाँ निकालते रहे और यहाँ से जाने के विषय में हिं सोचते रहे। लेकिन आज जब यह आखरी दिन आ गया तो हम सब मायूस थे,किसी को भरोसा नहीं था की चार साल इतनी जल्दी आ गया। ऐसा लग रहा था मानो अभी-अभी तो आये थे।इन चार वर्षों में हम कॉलेज की व्यवस्था के आदी हो गये थे और एक दिन में सब बदलने वाला था, अचानक इतना बड़ा परिवर्तन और परिवर्तन को इतनी जल्दी स्वीकृति नहीं मिलती चाहे वह जीवन का हो या जड़त्व का। लेकिन परिवर्तन तो हो कर रहता है और आज भी होकर रहेगा जाना तो पड़ेगा कल।

  इन्हीं विचारों में खोये हुये हम अपने मित्रों के साथ मैदान के बीच बैठे थे। चारों तरफ़ शोर का माहौल था, कहीं डायरिया लिखी जा रहीं थी, कहीं कमीज़ पर दोस्तों की निशान ली जा रही थी और कहीं तस्वीरों का दौर चल रहा था। सब अपने तरीके से इस पल को अपने में कैद करना चाहते थे। ऐसा लग रहा था मानो ये दुनिया खतम होने वाली हो और सच भी था खत्म ही तो हो रही थी हमारी वो दुनिया। जो जोड़े बिछड़ रहे थे वो तो बस हाथों में हाथ डाले आँखो से सैलाब बहाये जा रहे थे।

हम नीम के नीचे बैठे हुये इस पल को रोकने की भरपूर कोशिश कर रहे थे और समय पूरी गति से दौड़ रहा था। आज इस नीम की छाँव भी हमें माँ का आँचल लग रही थी जो हमारे सर से सदा के लिये हटने वाली थी।

    सबकी आँखे नम थी, सभी मौन इन्हीं ख्यालों में खोये हुये थे। तभी चिड़ियों की चहचहाने की आवाज़ ने हमारा मौन भंग किया और हल्की सी आह के साथ हमारी चेतना जागृत हुई। चिड़िया अपने-अपने घोसले में जा रही थी। 

   अब शाम बचपन की गोद से निकल जवानी की दहलीज़ पर था। सब हॉस्टल की तरफ़ लौटने लगे और रात को सबने एक साथ आखरी जाम टकराई। रात पूरी तीव्रता से सुबह की तरफ़ दौड़ लगा रही थी और हम उसे रोकने में असमर्थ थे। आखिरकार वो सुबह आ ही गई।

    सुबह की इस रौशनी में उड़ान सबको भरना था, किसी को मंज़िल मिलने वाली थी और इस सुबह की रौशनी में किसी की आँखें चौंधियाने वाली थी। सबके उड़ान भरने के साथ ही हमारे कॉलेज का वो सफ़र पीछे छूट गया।


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