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तुम लौट कर तो आओगे न!

तुम लौट कर तो आओगे न!

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उसने  उसे फेसबुक पर ढूंढ लिया। वह शायद उसी शहर में थी, जहाँ उसे वह एक दिन छोड़ कर गया था। उसने  सन्देश दिया - मैं यहीं हूँ तेरे शहर में। पलक झपकते उसका मैसेज आया – कहाँ?

- पता नहीं। हो सकता है तेरे  आसपास हूँ। कुछ कह नहीं सकता।

- क्यों? वह पूछ रही थी।

- तेरे शहर की सड़कें पहले भी पेचीदा थीं, अब और उलझ गई हैं। कुछ अंदाज़ नहीं लगा पा रहा।

- मुझसे मिले बिना मत चले जाना। वह इसरार कर रही थी।

- एड्रेस बताओ।

- वही है पुराना वाला। हमारे एड्रेस कहाँ बदलते हैं। मैसेज में लिपटी उसकी उदासी गेस्टहाउस के बंद दरवाजे को बिना नॉक किए भीतर चली आई है।

उसे लगा लगभग बीस साल पुराना समय वापस लौट आने को आतुर है। उसने विक्टोरियन शिल्प के उस गेस्टहाउस की उस ऊँची छत वाले कमरे के चारों ओर निगाह दौड़ाई। उसमें दीवार पर जड़े स्प्लिट एसी के अलावा सभी कुछ पुराने ज़माने का था। उसी काल का फर्नीचर जिसकी लकड़ी का रंग गहरा भूरा हो चुका है। खिड़की के पल्ले और दरवाजे की चौखट पर बारीक नक्काशी। ऊपर रोशनदान में लगे कांच के पार तिनकों से बना कबूतर का घोंसला दिखा।

ये कबूतर भी उसी काल के होंगे। उसने सोचा। क्या इस शहर के परिंदे भी अपना घर नहीं बदलते?

मोबाइल पर मैसेज अलर्ट आया। उसने देखा उसने दस डिज़िट का मोबाइल नम्बर भेजा है। वह उसे देख सोचता रहा। वह समझ नहीं पा रहा है कि बातचीत का सिरा कहाँ से पकड़े। बीते हुए समय के  सिरे इतनी आसानी से मिलते ही कहाँ हैं।

उसने मोबाइल पर मैसेज टाइप किया : कॉल यू लेटर। उसने सन्देश भेजा और गहरी साँस ली।

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उसने बेड की साइड टेबल पर रखे इंटरकॉम पर ब्रेकफास्ट का आर्डर किया। पहले हाथ में बंधी घड़ी में और फिर दीवार पर पेंडुलम वाली एंटीक घड़ी में समय देखा। दोनों के समय में बस दो मिनट का अंतर दिखा। उसे लगा कि समय चाहे जितना बीत जाए पर उसकी रफ्तार वही रहती है मिनट दो मिनट के फर्क के साथ।

उसने अपने बैग से डायरी निकाली और उसमें अपने पहले से तयशुदा कामों की फेहरिस्त देखने लगा। उसमें उससे मिलने का कहीं जिक्र नहीं था। लेकिन यादें तो अराजक होती हैं, किसी दस्तावेज में दर्ज न होने के बावजूद भी वह रहती हैं।

उसके पास आज करने लायक बहुत से काम थे। उसे सबसे पहले सचिवालय जाना था। किसी बढ़िया पोस्टिंग के लिए मुख्य सचिव को कन्विंस करने की कोशिश करनी थी। उसने उन दलीलों का मन ही मन पुनर्पाठ किया जो ऐसे मामलों में कारगर हो सकती थीं। उसने बड़े साहब की पसंदगी और नापसंदगी की पूरी रेकी कर रखी थी। उसे पता था कि उन्हें अंग्रेजी में सूक्तियों में बात करना अच्छा लगता है। उसने अष्टावक्र संहिता के अंग्रेजी अनुवाद में से लेकर अनेक सूक्तियां कंठस्थ की थीं। उसने तय किया था कि एक के बाद एक सूक्तियों की झड़ी लगा कर उन्हें हतप्रभ कर देगा। ऐसे हथकंडे नौकरी में रहते हुए वह खूब सीख गया है।

इसके बाद उसे एक अन्य मीटिंग में जाना था जहाँ उसे प्रशिक्षु अधिकारियों को प्रशासन के गुर बताने थे। कहने को तो मीटिंग का विषय रखा गया था – राज्य के समग्र विकास में अधिकारियों की भूमिका और चुनौती। लेकिन ऐसी मीटिंग में सबसे बड़ी चुनौती कैटरर की रहती है कि वह खाने के लिए लज़ीज़ व्यंजन परोस सके।

उसे आज मंत्री के घाघ पीए से भी मिलना था। उससे मिलना उसकी प्लान – बी का हिस्सा था। यदि मुख्य सचिव को वह पोस्टिंग के लिए इम्प्रेस न कर पाया तो यह पीए काम आएगा। प्लान – बी के सूत्रधार के लिए उसने पत्र पुष्प का इंतजाम किया हुआ था।

उसके लिए यह सरकारी दौरा एक तरह से पीआर एक्सरसाइज है। एक एक कदम साध कर चलने और हर सांस पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार लेने  की कवायद।

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जैसी की उम्मीद थी वह सारे काम बखूबी निबटाता गया। एकाध बार ऊबा तो उसने ब्लैक कॉफी पीकर अपने को रिफ्रेश कर लिया। बड़े साहब को याद की गई सूक्तियों के सम्यक इस्तेमाल से खूब प्रभावित किया। वह उसकी तीक्ष्ण बुद्धि से इम्प्रेस तो हुए पर कह दिया –लेट मी सी। उनकी यह सूक्ति उसकी सारी तैयारी पर भारी पड़ी। उसे समझ नहीं आया कि उसको मनचाही पोस्टिंग मिलेगी या नहीं। वह जानता है - ‘मुझे देखने दो’ का कुछ भी मतलब हो सकता है। यह कथोपकथन नास्त्रेदमस की उस घमाघम की तरह होता है जिसका अर्थ झमाझम बारिश और खूब तेज धूप और गर्मी, कुछ भी हो सकता है।

अपराह्न में वह मंत्री के पीए से मिला, जो अधेड़ वय का नितांत घुटा हुआ आदमी था। वह बात करते हुए हेंहें ..हेंहें ....करके कुछ इस अंदाज़ में बात करता था जिसकी वजह से उसका छोटा–सा कक्ष एकदम किसी अस्तबल की सी “फील” देने लगता था। वह अपनी आदत के मुताबिक हिनहिनाता रहा और उसे शासन की नीति–अनीति को लेकर तमाम ऊँच-नीच समझाता रहा। वह उसे चुपचाप बैठा उसकी हिनहिनाहट को  परखता रहा। वह किसी भी हालत में अपने प्लान - बी के घोड़े के पुट्ठे पर हाथ धरने को आतुर था। उसने पीए से विदा लेते हुए गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कोट की जेब से दो निकाले निकले और कहा –इसे देख लीजिएगा ...हेंहें ....हेंहें। उसने यह ‘हेंहें’ पीए के साथ भाईचारा दिखाने की नीयत से की।

हेंहें ....हेंहें, पीए ने कहा। उसने हल्का लिफाफा सामने मेज पर रख लिया और भारी लिफाफे को साइड में रखे उस ब्रीफकेस के हवाले किया जिसका लॉक कोडवर्ड घुमाने पर खुला।

वह संतुष्ट हुआ कि उसके लिफाफे और उम्मीद  सही हाथों में पहुँच गए हैं। इसके बाद उसने कोट की जेब से सुगंध में लिपटा टिशु पेपर निकाला। उसे चेहरे पर फिराया। टिशु पेपर पर कालिख निकली तो वह उसे देख कर मुस्करा दिया।

उसने पीए से एक बार फिर हाथ मिलाया। पीए उसके चेहरा साफ़ करने के अंदाज़ को कनखियों से देख रहा था। उसने फिर हेंहें ....हेंहें ... की।

इससे पहले वहां अस्तबल दुबारा नमूदार होता वह तेज़ कदमों से उस ओर चल दिया जहाँ ड्राइवर गाड़ी के पास उसे गेस्टहाउस ले चलने के लिए मुस्तैद खड़ा था।

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वह कुछ देर बाद अपने गेस्टहाउस के अपने कमरे में था।

- क्या लेंगे सर? गेस्टहाउस का कारिंदा उससे पूछ रहा था।

- कुछ भी। उसने कहा l

- हेंहे ...हेंहें.... कोल्डड्रिंक और सैंडविच ले आऊं सर।

उसकी इस ‘हेंहें’ पर वह चौंका। उसे लगा उसकी पीए के साथ की गई हेंहें की खबर उसे भी हो चुकी है। लेकिन तुरंत ही इस आशंका को यह सोच कर ख़ारिज कर दिया कि यह हेंहें तो अलिखित राजकीय प्रोटोकाल है जिसका पालन अमूमन बॉस के सामने पड़ने पर मातहत किया ही करते हैं।

- कुछ भी ले आओ पर सबसे पहले चिल्ड बिसलरी ले आओ।

कारिंदा जाने को मुड़ा तो उसने कहा – सुनो, एक नहीं दो बोतल लाना।

जी सर जी...। हेंहें ..करता वह कमरे के दरवाजे को भिड़ाता हुआ उससे बाहर हो गया।

उसके जाते ही उसने ऊँची आवाज़ में ‘हेंहें’ की और फिर अपने इस कारनामे पर खुद ही हंस दिया।

उसने एकबारगी अपने चेहरे पर फिर हाथ फिराया और कमरे की छत के करीब बने रोशनदान की ओर देखा। कबूतर वहां पंख दबाए बैठा संभवतः घूंघूं कर रहा था। हालाँकि आवाज़ नहीं आ रही थी पर उसने  अनुमान लगाया कि ‘घूं घूं’ कर रहा है।

उसे तसल्ली हुई कि कम से कम कबूतर को ‘हेंहें’ वाले प्रकरण का कुछ अता-पता नहीं है। रोशनदान वाले कबूतर किसी के मातहत नहीं होते।

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कारिंदा तुरत फुरत बिसलरी की बोतलें ले आया। उसने तुरंत उठकर वाशबेसिन पर जाकर एक बोतल के ठंडे पानी से मुँह धोया। फिर दूसरी बोतल खोल कर मुँह में डाला। तब तक कोल ड्रिंक पर फायल पेपर में रैप हुए सैंडविच भी आ गए।

उसने इत्मीनान से अपनी देह के दो तिहाई भाग को बेड पर लटका दिया। मोबाइल हाथ में लिया। ई-मेल चेक की। उसमें पसरी जंकमेल साफ़ की। मैसेज बाक्स खोला। वहां सेंट मेल काल यू लेटर के जवाब में लिखा सन्देश मौजूद था – ओके। मैं इंतज़ार करूँगी। हालाँकि उसने लिखा नहीं था पर उसे लिखा हुआ दिखा – मैं इंतज़ार करूँगी कयामत तक।

उसने  सोचा  कि किसी से मिलने के लिए कयामत से बेहतर कोई वजह होनी चाहिए। उसकी रिजर्वेशन कल सुबह का था और उसके पास तमाम बचा हुआ समय था। वक्त काटने के लिए यादों की जुगाली कर लेने में हर्ज क्या है।

कुछ सोचकर उसने रूम सर्विस से कहा – ड्राइवर भेजो।

वह आँख बंद करके उन भूली-बिसरी गलियों का पता  याद करने लगा जहाँ उसने कभी उसकी आँखों में प्यार की ताब को महसूस किया था। जिस गली के अँधेरे कोने में बेहद दुस्साहसी तरीके से उसे चूम लिया था। और उसकी नरम हथेलियों की छुअन के रोमांच को अपनी कमर पर रेंगता हुआ पाया था।

- जी सर ...हाथ बंधे ड्राइवर दुबारा पूछ रहा था।

- चलो बाद में बताते हैं। उसने कहा।

ड्राइवर तुरंत इस तरह कमरे से लापता हुआ कि उसे वह न तो दरवाजा खोलता दिखा न उसे बंद करता। मानो वह जिन्न की तरह बंद दरवाजे के आरपार निकल गया हो।

उसने तय किया कि वह वहां अकेला ही जायेगा। यादों में वापस लौटने के लिए अकेलेपन के सिवा कोई चारा भी तो नहीं होता।

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वह याद के सहारे संकरी गली-दर-गली लांघता उससे मिलने के लिए बढ़ता गया। नीम के पेड़ के नीचे उसे धमाचौकड़ी करते बच्चे दिखे। कुछ ही दूर बनी मुंडेर पर उकडू बैठे बतरस में डूबे किशोर दिखे। सार्वजनिक नल पर पानी भरती औरतें दिखीं। एक मोड़ पर बनी एक छोटी–सी दुकान के बनी भट्टी पर रोटी खमीरी रोटी सेंकते अधपकी दाढ़ी वाले मौलाना दिखे तो वह समझ गया यह तो वही मंसूर है जिससे वह खमीरी रोटी अखबार के कागज में लपेट कर ले जाया करता था।

उसे लगा कि समय यहाँ ठहरा हुआ है। एक कदम भी नहीं आगे बढ़ा। वही चहल-पहल,वही खमीरी रोटी की गंध और वही मंसूर, जिससे वह उन दिनों काफी बेतकल्लुफ हो गया था।

उसने किसी से उसका पता नहीं पूछा। पूछने लायक वह हिम्मत नहीं जुटा पाया। अंततः वह उस जगह पहुँच गया जहाँ एक अँधेरी गैलरी-सी मौजूद थी। जिसे दो चार कदमों में पार करके वह बायीं ओर मुड़ता था तो दरवाजे दो चमकदार आँखें उसका इंतज़ार करती हुई मिलतीं। वह वहां के अँधेरे को देखकर बुदबुदाया, रौशनी वहां क्यों नहीं होती, जहाँ उसकी सबसे अधिक जरूरत होती है।

गैलरी को उसने गौर से दिखा उसके ऊपर टंगी कंदील उसी तरह लटकी थी जैसी कभी एक दीवाली पर टंगी थी। दरवाजे के दोनों ओर बने सतिये के निशान पर वैसे ही बेरंग कलावा लटका था जैसे उन दिनों लटका रहता था। उसने गैलरी में पैर रखा तो कबूतरों के परों की वही फड़फड़ाहट सुनाई दी जैसी बीसियों बरस पहले उसे सुनाई दी थी, जब वह शहर छोड़ने से पहले उससे आखिरी बार मिलने आया था। उसने उसे अपने लौटने का कोई दिलासा तब नहीं दिया था लेकिन उसकी आँखों में लिखी इबारत जरूर पढ़ी थी – तुम लौट के तो आओगे न!

वह लौट कर आया था ठीक उसी तरह जैसे अतीत कभी-कभार वर्तमान में आ जाता है –बाजिद।

- तो तुम कर आ गए। मुझे पता था कि तुम आओगे। चारपाई पर लेटी आकृति अब दीवार के सहारे टिक कर बैठ गई थी। कमरे में एक मद्धम से रौशनी वाली सीएफएल जल रही थी

- तुम आये। मुझे बड़ा अच्छा लगा। आकृति कह रही है जो आकृति कम छाया अधिक दिख रही। वह उस छाया में उसकी आँखों को ढूंढ रहा था ताकि यह पक्का हो जाये कि वह सही पते पर पहुंचा है।

- तुम कैसी हो? उसने पूछा।

- तुम तो अब बड़े अफसर हो गए हो। मुझे पता है।

वह कुछ देर चुप रहा फिर उसने पूछा – और तुम। और इज़ा...

- इज़ा को  गुज़रे अरसा हुआ। और मैं जैसी थी वैसी हूँ ...

- तुम्हारी नौकरी?

- अब नौकरी नहीं पेंशन है। बीमार रहने लगी तो रिटायरमेंट ले लिया। पेंशन मिलती है।

- और? वह जो जानना चाह रहा था। वह उसे बता नहीं थी।

- और बाकी?

- बाकी क्या। सब मौजां ही मौजां। इसके बाद वह खिलखिलाकर हंस दी। उसे लगा वह वैसी ही आज भी है जैसी कल थी। समय ने उसकी देह के साथ चाहे जो बदसलूकी की हो लेकिन वह मन को नहीं छू पाया।

अनायास कमरे लगी ट्यूब जल उठी। ऑन तो पहले से थी शायद, वोल्टेज बढ़े तो रौशन हो गई। उसने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें वैसी ही चमक रही थीं जैसी पहले चमकती थीं जिनके बारे वह कभी तय नहीं कर पाया कि वह शरारतन चमकती हैं या मुहब्बत में या यूँ ही आदतन।

वह देर तक बतियाते रहे। बतियाते क्या रहे अपने अतीत के पन्ने पलटते रहे। उसने उसके लिए एक बार चाय बनाई, एक बार कॉफी। उसके ना-नुकूर के बावजूद इसरार करके करेले की सब्जी के साथ परांठे खिलाये।

रात घिर आई थी। उसने कहा – अब चलूँगा। उसने भी मना नहीं किया।

वह जाने लगा तो उसने उसे हौले से पुकारा – सुनो!

उसने मुड़कर देखा।

मुझे तपेदिक नहीं है। वह कह रही थी। उसकी आँखें  चमक उठी हैं।

ओह! उसने कहा और उसे बाँहों में भर कर उसके होंठों को चूम लिया।

- धीरे से। मुझे तपेदिक तो नहीं है लेकिन कमर दुखती है। उसने कहा और नटखट मुस्कान की एक बारीक-सी लकीर उसके अधरों पर आ टिकी।

वह चाह कर उसकी इस अदा पर ‘हेंहें –हेंहें’ करके हँस नहीं पाया।

- तुम लौट कर तो आओगे न! अतीत से आती उसकी लरजती आवाज़ वर्तमान पर चिपक गई है।

 

 

 


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