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रंगोली में एक रंग कम

रंगोली में एक रंग कम

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"हुबहू तुम पर गया है।" मदन की मासी  ने खुश होते हुए कहा।

"नाक, आंखें, मैं तो कहती हूँ, पूरा तुम पर गया है।" यह नासिक से आयी  चाची  की राय थी।

                पप्पू आनंदी की गोद में  दुनिया की रस्मों रिवाज़ से बेख़बर था। आज पप्पू का नामकरण था। आनंदी ने कनखियों से देखा, सुजाता मेहमानों की भीड़ से कुछ अलग थोड़ी दूर चुपचाप खड़ी, उसे एकटक देख रही थी, आँखें शायद कुछ नम थीं। वह गुस्सा, तिरस्कार, तीखापन जिसकी आनंदी आदी थी, आज सुजाता के चेहरे पर नज़र नहीं आ रहा था। सिर्फ थोड़ा सा क्षोभ था और शायद अचानक मिली  रिहाई का सुकून, एक मुलायमत।

उसे देख, कुछ देर के लिए आनंदी अपने माज़ी में खो गई। उसे वह दिन याद आ गए जब वह खुद उम्र की दहलीज  पर थी। मदन और आनंदी दोनों कॉलिज में साथ पढ़ते, उठते, बैठते थे। उस वक़्त मदन उसका हीरो था। उसकी सुबह, शाम मदन के साथ गुज़रती। जब शाम को उससे अलग होती तो दूसरे दिन सुबह मिलने के लिये। पढ़ाई पूरी होते ही आनंदी ने नौकरी ढूँढ ली, मदन ने भी नौकरी ढूँढ ली, लेकिन आगे पढ़ाई जारी रखी। 

दो साल बीत गए। मदन के दोस्त उसे छेड़ने लगे, कब  आनंदी से शादी करेगा? आनंदी के माता-पिता भी काफी उत्सुक थे कि आनंदी की शादी हो जाए। मदन भी चाहता था कि वह जल्द से जल्द आनंदी को शादी के बंधन में बांध ले। एक दिन उसने आनंदी से वादा किया, आज शाम तुम्हारे घर आऊँगा, तुम्हारा हाथ मांगने।

आनंदी शाम को सज सँवर कर, घर को सजाकर बैठ गई। उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उसका रंग और निखर रहा था। उसके  माता-पिता को मदन के आने का इंतज़ार था। शाम इंतज़ार में बीत गई। आनंदी का दिल बैठा जा रहा था, शाम ढल गई, रात ने अपने पँख फैलाए और आहिस्ता-आहिस्ता हर तरफ तारिकी छा गई, मदन नहीं आया। 

आनंदी उस रात सो नहीं पाई। सुबह तक उसने कपड़े नहीं बदले थे। करीब दस बजे एक लड़का आया और मदन का ख़त देकर चला गया। उसमें सिर्फ इतना ही लिखा था "मैं  किसी कारणवश नहीं आ पाया, मेरा इंतज़ार मत करना।"

इतने सालों का प्यार, दोस्ती और सिर्फ दो जुमले। इंतज़ार क्या खत्म हो सकता है? आनंदी ने इंतज़ार करना नहीं छोड़ा। उसके मन के एक कोने में कुछ था, जो उसे इंतज़ार करने पर मजबूर कर रहा था। उसे कभी-कभी लगता था जैसे वह कॉपनहेगन की जलपरी है, जिसे सालों से अपने प्रेमी का इंतज़ार है।

कुछ दिनों बाद मदन के दोस्तों ने आनंदी को ख़बर दी कि मदन ने दूसरे शहर में जाकर शादी कर ली है। ये सुनकर आनंदी की मन:स्थिती नाज़ुक हो गई। उसे हर पल छल लग रहा था। वह सोच रही थी, मदन के साथ बिताया हुआ  वक़्त क्या वह एक छल था ? या यह पल जो गुज़र रहा था?

सात साल बीत गए। वक़्त के साथ जीवन के दृश्य बदलते रहे। आनंदी के माता-पिता परलोक सिधार गए। अब वह अकेली थी। अब उनका हाथ उसके सर पे नहीं था। विराने और कोहसार के उस आलम में क्या अब भी वह कोपनहेगन की जलपरी की तरह इंतज़ार कर रही थी? शायद  कर रही थी।

दिन तो दफ्तर के कामों में और घर के कामकाज में गुज़र जाता, लेकिन शाम को जब घर का दरवाजा खोलकर अंदर  दाखिल होती तो मानो घर की तारीकी उसके मन में  छा जाती। घर में रौशनी करने के बाद भी बाहर का अंधेरा उसको डसने लगता। उसके मन की व्यथा असह्य थी। तनहा क्षणों में जब भी उसकी सवालिया नज़र आसमान की तरफ उठी, आसमान चुप था, ज़मीन चुप थी, फ़िज़ाओं में ख़ामोशी छाई रहती। उसने अपना जीवन मदन से अलग कभी नहीं सोचा था। मदन से अलग होना मानो खुद से अलग होना, लेकिन फिर भी... यह क्या हो गया। 

एक छुट्टी के दिन आनंदी अख़बार पढ़ रही थी, दरवाज़े पर दस्तक हुई, दरवाज़ा खोला। सामने मदन खड़ा था। मदन! इतने  सालों बाद? वह स्तब्ध रह गई। "अंदर आने को नहीं कहोगी?" मदन ने हल्के से मुस्कराते हुए कहा।

 "हाँ, हाँ।... आओ ना"

वह उसे देखे जा रही थी, कुछ भी बदलाव नहीं आया था। सिर के बालों को सफेदी छू तक नहीं गई थी। वह मदन को एक टक देखे जा रही थी, मानो उसके पलक झपकते ही  मदन आँखों से ओझल हो जायेगा।

थोड़ी देर हाल-चाल पूछने के बाद समय न गँवाकर मदन ने  आनंदी के सामने प्रश्न रखा,

"मुझसे शादी करोगी?"

"मेरे बच्चों की माँ बनोगी?"

सवाल के साथ ही मदन ने कहा, मुझे तुम्हें बताना ज़रूरी लगता है, हालाँकि तुमने मुझसे कुछ नहीं पूछा, बरसों पहले जिस दिन मैं तुम्हारे यहाँ आनेवाला था तुम्हारा हाथ मांगने, उस दिन मेरी बहन की ननद के मंगेतर की अकस्मात में मृत्यु हो गई। मेरी बहन के ससुर वह आघात सहन नहीं कर पाए, उन्हें गहरा सदमा पहुँचा। हालात को देखकर मेरे पिताजी और मेरी बहन की सास ने मुझ पर ज़ोर डाला कि मैं उसकी ननद से शादी करूँ जो बच्चे की माँ बनने वाली थी। मेरे न चाहते हुए भी, मेरे मना करने पर भी पिताजी नहीं माने। उन्होंने  मुझ पर दबाव डाला। आनंदी, कभी-कभी  रिश्ते प्यार के आगे भारी पड़ जाते हैं। मैं मजबूरी में उस  रिश्ते में उलझता गया। मैं तुमसे दूर था लेकिन मेरे दिल के एक कोने में तुम हमेशा रहती थी।

"अब मैं मेरे दो बच्चों के साथ अकेला हूँ। मेरी पत्नी का देहांत कुछ समय पहले हुआ जब मेरा बेटा सिर्फ छः महीने का था।आनंदी मैं तुम्हें अब खोना नहीं चाहता।

“क्या तुम मुझ से शादी करोगी?

कुछ बीते वर्षों का अकेलापन, उसके सामने खड़ा उसका प्यार, जिसे वह अभी तक अपने दिल से अलग नहीं कर पायी थी और आनेवाली ज़िन्दगी का बेरंग रूप सोचकर उसने आँखे बंद कर ली। अर्श और फर्श दोनों से एक ही आवाज़ गूंज रही थी, "प्रेम मुग्ध हो जा।"

उसने आँखे मूंदे ही हल्के से हाँ कहाऔर धीरे से आँखे खोलकर मदन की तरफ देखा। मदन की आँखों में ख़ुशी और प्यार झलक रहा था।

मदन उस रात वहीं ठहर गया।

दो चार दिन में आनंदी से शादी करके अपने घर ले आया।

नये घर परिवार में आकर आनंदी व्यस्त हो गई। एक तरफ छोटा संजू जिसे प्यार से वह बबलु कहती थी, उसका खाना  पीना, रोना-धोना, सुलाना और दूसरी तरफ सुजाता, उसका  स्कूल, उसकी देखभाल। संजू चूँकि छोटा था, लाडला था, उसकी गोद में खेलता था। उसे ही माँ कहता, लेकिन सुजाता!

सुजाता ने उसे अपनी ज़िन्दगी में, अपने करीब आने की इजाज़त नहीं दी। स्कूल जाते वक़्त, बालों में कंघी करते समय, टिफिन लेते समय, सुजाता यहाँ-वहाँ देखती, उसके सामने नहीं। आनंदी की हर कोशिश थी की वह सुजाता को प्यार दे, दुलार दे लेकिन वह नाकामयाब रही। 

एक संपूर्ण अस्वीकृति!

सुजाता एक दिन स्कूल में गिर गई, तब वह आठ साल की थी। स्कूल से जब फ़ोन आया तो आनंदी दौड़ती हुई स्कूल पहुंची। आनंदी सुजाता का हाथ पकड़ कर स्कूल से बाहर आई तब स्कूल की प्रिंसिपल के आँखों से ओझल होते ही सुजाता ने अपना हाथ आनंदी से छुड़ा लिया और आहिस्ता- आहिस्ता चलने लगी। डॉक्टर के सामने भी कुछ नहीं बोली और न ही वह रोई। आनंदी ने देखा काफी खून बह रहा था, बच्ची को दर्द हुआ होगा लेकिन वह चुप थी। दूसरे बच्चों की तरह न ही ज़ोर-ज़ोर से रोना, न ही ज़िद करना। पाँव में काफी चोट आयी थी, बिस्तर पर पड़े-पड़े छोटी बच्ची न जाने क्या सोचती रहती। आनंदी उस वक़्त भी सुजाता को ढेर सारा प्यार देना चाहती थी, लेकिन उसकी हर कोशिश  असफल रही। 

आनंदी मदन के साथ अपने परिवार में बहुत खुश थी। लेकिन फिर भी जब भी वह दिवाली के मौके पर रंगोली सजाती या फिर किसी त्यौहार पर घर की सजावट में जुट जाती, लाख कोशिश करने पर भी उसे लगता कि कोई रंग छूट गया है। वह प्यार का रंग, वह रिश्ता, वह प्यार की डोर जो वो सुजाता और अपने बीच में देखना चाहती थी, उसकी  कमी थी। 

सुजाता जैसे-जैसे बड़ी होती गई, घर में ज्यादातर खामोश रहने लगी। अब उसकी आँखों में कुछ खुमारी नज़र आने लगी थी। अपनी हम उम्र सहेलियों के साथ ज़्यादातर वक़्त गुजारती। आनंदी के दिल में हमेंशा चिंता रहती कि बेटी बड़ी हो गई है उसकी अपनी सोच क्या है?

उसकी सहेलियां कौन-कौन और कैसी है? किन लोगों के साथ उसका उठना बैठना, मिलना  जुलना है?

लेकिन सुजाता ने तो बचपन से ही आनंदी के लिए अपनी ज़िन्दगी के बहुत से दरवाजे बंद कर रखे थे। मदन से वह इस बारे में बात करती तब वह हंस देता और कहता, "वह तो अभी छोटी है, नाहक चिंता कर रही हो।" लड़की कुछ उम्र के बाद छोटी नहीं रहती। आनंदी की लाख कोशिशों के बावजूद मदन ने सुजाता पर कोई अंकुश डालने का प्रयत्न नहीं  किया। उसके  लिए वह हमेंशा छोटी  बच्ची ही थी।

"कुछ कहना  है।"

एक बहुत ही धीमी और सहमी आवाज़ सुन कर आनंदी चोंक गई, पलट कर देखा तो सुजाता सामने खड़ी थी। जिसकी आवाज़ में हमेंशा नाराज़गी और गुस्सा रहता था, वह आज  इतनी  सहमी हुई?

"पापा को मत बताना" कुछ और डरते हुए सुजाता ने कहा।

"कहो बेटा" आनंदी ने बड़े प्यार से पूछा।

कुछ कहते कहते सुजाता रुक गई। आनंदी ने देखा, सुजाता का कांपता हाथ उसके पेट की तरफ जा रहा था और अपनी परेशानी में  वह और कुछ नहीं कह पा रही थी। आनंदी कुछ देर के लिए निःस्तब्ध हो गई उसने जल्द ही अपने आपको संभाला। वह समझ गई सुजाता क्या कहना चाहती है और अपने पापा से क्यों छुपाना चाहती है। उसके मन में अनेक सवाल उभरने लगे। कब, कौन, इसके साथ ही क्यों? उसने अपना ममता भरा हाथ धीरे से सुजाता के सर पे रखा और कहा, "डरो मत, मैं हूँ ना।"

सुजाता से उस को पता चला, जिसको वह अपना प्रेमी मान बैठी थी वह असल में धोकेबाज़ निकला, न जिम्मेदारी का अहसास था, न ही वो अपने माँ बाप से बात करना चाहता था। वह उसे छोड़कर विदेश पढ़ने चला गया। अब सुजाता के पास आनंदी को बताने के सिवाय और कोई चारा नहीं था। आनंदी इस परिस्थिति में सुजाता को ज़रा भी चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी। वह सुजाता को दिलासा देती रही, क्या करे?

वह आखिर एक नतीजे पर पहुँच गई।

आनंदी सुजाता को लेकर अपने पुराने मकान में आ गई। यहाँ सुजाता को कोई नहीं जानता था। वह उसकी हर चीज़ का ध्यान रखती। सुजाता धीरे-धीरे आनंदी के करीब आने लगी, उसे समझ में आ गया था कि आनंदी कितनी अच्छी माँ थी। घण्टो तक दोनों बातें करते, कुछ वक़्त पढ़ते, टहलने जाते, वक़्त कट जाता। अब दोनों के बीच प्यार की एक अटूट डोर बंध गई थी। आनंदी रोज सुजाता की पसंद का खाना बनाती और उसे प्यार से खिलाती। जब नन्हे पप्पू को सुजाता ने जन्म दिया तब आनंदी ने उसका हर्ष सहित स्वागत  किया।

आज आनंदी के बेटे पप्पू का नामकरण था और वह बेहद खुश थी। सुजाता के साथ माँ बेटी का रिश्ता कायम कर उसको महसूस हो रहा था जैसे उसकी रंगोली में सब रंग भर गए  हैं, किसी भी रंग की कमी नहीं  है।


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