बंजारा प्रेम
बंजारा प्रेम
प्रेम बंजारा पानी सा,
बिन बंधन के विचरता है,
ऊँचे महलों में टिका नहीं,
नीचे नगरों में बहता है।
इसका कोई आकार नहीं,
इसकी न रूप रेखा है,
जिस सांचे में डाला जाए,
उस सांचे में ढल सकता है,
एक बूँद में भी सिमट सकता,
और सागर में भी उफनता है।
प्रेम बंजारा पानी सा…
पानी बादल बन उड़ता है,
तो प्रेम फिरता है स्मृतियों में,
कभी अपनों से निचुड़ता है,
और अनजानों पर बरसता है,
भिंची मुट्ठी में से बह जाता,
फैली अंजलि में भरता है।
प्रेम बंजारा पानी सा…
धरती जलकर सूरज से जब,
आकाश संदेसे भेजती है,
दोनों की लक्ष्मण रेखा है,
पार न कोई कर पाता है,
आकाश का आंसू ओस टपक,
धरती को मरहम लगाता है।
प्रेम बंजारा पानी सा…
खुद मैला होकर भी जो,
औरों का कालुष धो लेता है,
बहता जाता नदिया जैसा,
सब मन शीतल कर देता है,
पतितों को पावन करता,
जन्मों की पीड़ा हरता है।
प्रेम बंजारा पानी सा,
कोई सीमा ना रखता है,
ऊँचे महलों में टिका नहीं,
नीचे नगरों में बहता है।