कभी चलती हूँ इस रेत पर
कभी चलती हूँ इस रेत पर
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कभी चलती हूँ इस रेंत पर अकेली।
बहुत-सी यादें, दाैड कर आती हैं नंगे पैर,
ले जाती है उस मोड़ पर,
नज़र आते हैं वहाँ कुछ सपने अधूरे,
वाे तजुर्बें, वाे किस्से तुम्हारी ही यादों के,
जिन्हें पीछे छोड़ आई थी यूँ ही बेवजह।
पर आज उन्ही यादों के सहारे,
कागज़ पर उतरती हूँ
एक अनकही दास्तां बनकर,
तुम्हारी ही यादों की।