परछाईयाँ
परछाईयाँ
परछाईयाँ पनाह नहीं देती
बस मंडराती सी चलती हैं।
कभी साथ-साथ, कभी आगे-पीछे
लंबी, आड़ी-तिरछी, रंगहीन-सी
काले धब्बों की आकृति
हमसे मिलती जुलती।
भरोसा इनपर करना भी
एक धोखा है!
क्योंकि इनका अस्तित्व है
सिर्फ रौशनी की उजास रहने तक
अंधेरे की कालिमा में
न जाने कब पलके मूंदते हीं
ये छोड़ जाती हैं साथ
हो जाती हैं विस्थापित।
तय किया है
इनकी नियति देखकर
अब नहीं होने दूँगी
बँधक खुद को
अतीत की धुँधली परछाईयों का
अट्टहास करती हैं जब-तब वो
मेरी पिछली असफलताओं पर
कर देना चाहती हैं
मुझे नाकारा घोषित।
और कैद कर देना चाहती हैं मुझे
फिर से उसी अँधेरी गुफा में
जहाँ से निकाला है मैंने
अपने वजूद को
आत्मविश्वास की एक नन्ही सी
रौशन चिंगारी के सहारे
और उड़ना सीख लिया है
रंग-बिरंगी तितलियों की तरह
अतीत की काली परछाईयों से
दूर….बहुत दूर।