मूर्तिकार की व्यथा
मूर्तिकार की व्यथा
सोच रहा था मूर्तिकार जिसने पत्थर किया साकार।
बनाए जिसने कई आकार, रमणिय, विविध प्रकार।
कुछ लघु, कुछ दीर्घाकार...
इसे बड़े आदर से लाया, धूमधाम से यहाँ लगाया।
स्मारक का रूप दिलाया, जन समूह भी उमड़ा आया।
पहनाये फूलों के हार...
पर्व एक विशेष जब आया, प्रातः पानी से नहलाया।
सुन्दरतम् फूलों से सजाया, एक महोत्सव यहाँ मनाया।
पुलकित मन था बारम्बार...
अगले दिन का हाल निराला, खा गये पशु फूलों की माला।
पक्षियाँ ने गंदा कर डाला कर दिया धुल-धुंएँ ने काला।
चहु दिशा बदबू की भरमार...
भूल गये उनके बलिदान, आज हुऐ उनसे अनजान।
कल तक थी जो इनकी शान, अब नहीं देता कोई ध्यान।
हाय! कैसा ये सत्कार...
देख कर वह दुखी होता है, मन ही मन बहुत रोता है।
समझ नही कुछ पाता है, करने को कुछ चाहता है।
आता हैं उसे एक विचार...
संग्रहालय कहीं एक बनाए, सभी मूर्तियाँ वहाँ लगाए।
गाथा उनकी साथ लिखाए, सदा हमें वो याद दिलाए।
करे कुछ ऐसा व्यवहार...