पचपन में बचपन
पचपन में बचपन
यादों की एक धुंधली खिड़की से,
झांकता...
मेरा नटखट बचपन।
जब खिड़की से,
फुदककर बाहर आता है,
तब उम्र का एहसास,
तिरोहित हो जाता है।
बच्चों की तरह इमली-कटारे,
उन पर चूरन लगाकर,
खाने को जी चाहता है।
दो चोटियाँ बांधकर,
स्कूल जाती अल्हड़ लड़की,
स्वयं में देखती हूँ।
पढ़ाई के साथ,
सहेलियों से लड़ाई,
रूठना-मनाना,
सब करने को जी चाहता है।
अँधेरे में बाहर खेलना,
पीछे से ‘भौं’ कर,
साथियों को...
डराने को जी चाहता है।
ठेलेवाले के पास,
चाट-पापड़ी के चटकारे...
एक रुपये में 16 गोलगप्पे,
खाने को जी चाहता है।
घर से स्कूल तक
पीछा करने वाले,
उस लड़के को कनखियों से,
देखने को जी चाहता है।
पड़ोसियों के यहाँ,
होने वाली शादी में,
सजधज कर,
नाचने-गाने को जी चाहता है।
बुआ, ताई चाची के बच्चों को,
याद करती हूँ,
सबके साथ हुडदंग,
मचाने को जी चाहता है।
हर गलती पर
फटकारने वालीं,
माँ की धुआंधार नसीहतें,
सुनने को जी चाहता है।
सुबह, दोपहर, शाम, रात को,
‘बिटिया रानी’ पिता से,
सुनने को जी चाहता है।
ओ मेरे रसीले - कसैले बचपन,
जीवन भर,
तेरे साथ रहने को जी चाहता है।