वो इलाहाबाद
वो इलाहाबाद
इलाहाबाद! हाँ, इलाहाबाद मेरी कर्म भूमि, जिसके स्पर्श से मैं पुष्पित और पल्लवित हुआ। एक ऐसा शहर, जिसमें प्राचीनता और नवीनता इस प्रकार समाहित है, जैसे समांगी विलयन। प्राचीन विरासत को सहज भाव से समेटे यह प्यारा शहर आधुनिकता को मूर्त रूप से जीता है।किशोर चंचलता लिए विश्वविद्यालय के प्रांगण पढ़ते-लिखते, खेलते- कूदते कब यह शहर छूट गया, पता ही नही चला। अपने गुरुजनों की छत्रछाया में पलता बढ़ता अध्ययन करता हुआ जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ा। उनके आशीर्वचन आज भी सम्बल देते है।
विजयानगरम के सामने दोस्तों के साथ हर पल की गुजरीं यादें भले ही धुंधली हो गयी हो, पर उनकी चमक आज भी बरकरार है। यूनिवर्सिटी रोड पर किताबों में उलझे दिन आज भी चेहरे पर मुस्कान ला देते है। किसी भी बात पर लम्बी लम्बी बहसें लगातार होती रहती। पूरा संसार वहीं पर आ जाता था। दोस्तों संग इधर से उधर साइकिल से पूरा इलाहाबाद छान मारते थे। सलोरी में दोस्तों संग पढ़ाई और घूमना कुछ अलग ही मजा देता था। तेलियर गंज में कई महफ़िल दोस्तों के साथ होती।अल्लापुर कुछ अलग ही आनन्द प्रदान करता। सिविल लाइन्स, चौक की रंगत निराली ही थी। फाफामऊ के सगौड़े आज भी मुॅंह में पानी ला देते है। देहाती के रसगुल्लों की तो बात ही गजब थी। इलाहाबाद डिग्री कॉलेज के डॉ. तिवारी और विमल पाण्डे जी के साथ बैरहना में सन्देश मिठाई का मजा ही कुछ और था।
त्रिवेणी संगम की छटा तो अद्भुत और निराली है। इसकी महिमा तो अतुलनीय है, जिसका वर्णन वेद-पुराण तक करते है। इलाहाबाद के रग-रग में भारतीयता बसती है। यह अलौकिक धरा अति पुनीत व पावन है। समय कब पंख लगाकर उड़ जाता है, इसका भान ही नहीं होता।जिन्दगी की आपाधापी में अब जाना कम होता है, परन्तु मन उन्ही की फ़िज़ाओं में विचरण करता रहता है।