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sudhir chaturvedi

Others

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sudhir chaturvedi

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स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति

स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति

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रजनीश की नींद प्रातःकाल के प्रथम पहर में ही अचानक खुल गयी। रोज की तरह बिस्तर छोड़ने ही वाला था कि उसे ध्यान आया, आज तो उसका सेवानिवृत्ति का पहला दिन है। कहीं जाना भी नहीं है। फिर इतनी सुबह से उठकर करेगा भी क्या?

किंकर्तव्यविमूढ़ रजनीश ने फिर भी बिस्तर छोड़ दिया। प्रतिदिन की तरह तैयार होकर सुबह की सैर पर निकल गया। घण्टे भर बाद वापस लौटते समय फिर वही यक्ष प्रश्न उसका पीछा कर रहा था कि दिन भर वह क्या करेगा? घर में बच्चे तो हैं नहीं। दोनों बेटियाँ अन्य शहर में अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रह रही हैं और पत्नी अपनी सरकारी नौकरी मे व्यस्त है। उसे यही चिंता सताए जा रही थी कि दिन भर खाली घर काटने को दौड़ेगा।

   वह अपने अतीत की उन स्मृतियों में खो गया, जब वह प्रतिदिन नौकरी से लौटकर आने के बाद अपनी पत्नी आरती से नौकरी के रोज़मर्रा के तनाव और नीरस जीवन की शिकायत करते हुए कहता था कि मैं अब इस नौकरी से तंग आ गया हूँ। जल्द ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लूंगा। तब आरती हँसकर कहती कि एक दिन भी घर मे नहीं टिकोगे। इतनी व्यस्तता भरी जिंदगी से एकदम खाली हो जाओगे। कमोबेश यार-दोस्त भी यही ताने मारते। रजनीश ने किसी की नहीं सुनी। अपने मन की ही करी।

   अचानक उसकी एकाग्रता टूटी, उसने निश्चय किया कि वह भविष्य की चुनौती को स्वीकार करेगा। उसने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का निर्णय अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर लिया है। सभी कहते हैं सुनो सबकी और करो अपने मन की। जीवन यापन के लिये रोजगार आवश्यक है, पर एक निश्चित सीमा तक। तन को स्वस्थ रखने के लिए शारीरिक व्यायाम आवश्यक है, तो मन को स्वस्थ रखने के लिए मन की शांति। हाँ, रजनीश ने ठान लिया कि अब उसे अर्थोपार्जन के लिए कुछ नहीं करना है। उसके पास संतोषजनक संपत्ति, बैंक बैलेंस और खुशहाल परिवार है। चुनौती केवल गुणवत्तापूर्ण समय व्यतीत करने की है। 

   सुबह की सैर, योग, स्नान, ध्यान और नाश्ते के बाद रजनीश ने जीवन संगिनी आरती से सामान्य वार्तालाप किया और साथ ही स्वयं को दैनिक समाचार पत्र, मोबाइल में व्यस्त रखा। अपने अंदर चल रहे वैचारिक द्वंद्व का आभास भी आरती को नही होने दिया। आरती के नौकरी पर जाने के बाद खाली घर, खाली समय, विचार शून्यता उस पर हावी होने लगी। नहीं, यह एक दिन की बात नहीं है, उसे कुछ करना ही होगा। रजनीश इस उधेड़बुन में लगा ही था कि दरवाजे पर बाहर किसी ने घण्टी बजाकर आवाज दी। कौन है भाई? क्या काम है? वह बाहर निकल कर आया तो एक अपरिचित बुज़ुर्ग सज्जन अहाते के बाहर घर के दरवाज़े पर खड़े दिखे। रजनीश ने पूछा क्या चाहिए बाबा?

   अपरिचित सज्जन ने हाथ के इशारे से रजनीश को अपने पास बुलाया। नजदीक जाकर रजनीश ने बुज़ुर्ग को गौर से देखा- उम्र के झुर्रीदार भरे चेहरे पर मोटा चश्मा, कृशकाय शरीर, मैले-कुचैले फटे कपड़े और नंगे पाँव बुज़ुर्ग के गालों पर दो मोटे-मोटे आँसुओं की धारा सूखी हुई थी। बुज़ुर्ग के शरीर की दशा द्रवित कर देने वाली थी। रजनीश का मन उन्हें देखकर भर आया। उसने बुज़ुर्ग को ससम्मान अपने घर की बरामदे में बैठाकर, एक गिलास पीने को पानी और छोटा सा गुड़ का टुकड़ा खाने को दिया। जब बुज़ुर्ग थोड़ा-बहुत संभले तो रजनीश ने उनकी व्यथा-कथा समझी।

   बुज़ुर्ग के टूटे-फूटे, उखड़ी हुई सांसों से निकले संवाद से यह समझ आया कि वह भी कभी नौकरी शुदा सरकारी मुलाजिम हुआ करते थे। सेवानिवृत्ति के बाद जब तक उनके हाथ पांव चले, घर में उनकी पेंशन आने से बुज़ुर्ग की खूब देखभाल होती रही। कालांतर में पत्नी के निधन के पश्चात् उनका स्वास्थ्य खराब होता चला गया। पेंशन से अधिक दवाइयों पर खर्च होने लगा तो बेटा और बहू ने यह कहकर घर से निकाल दिया कि उनकी सीमित आय से अब बुज़ुर्ग की परवरिश संभव नहीं है। अपनी आपबीती कहते-कहते बुज़ुर्ग का गला रुंध गया। रजनीश सहसा सहम गया। उसे आभास हुआ, जैसे भविष्य की फिल्म वर्तमान में चल रही है। यूँ न सही, पर कमोबेश उत्तरोत्तर शरीर क्षय तो ऐसा ही कुछ होगा। 

   रजनीश ने बुज़ुर्ग को यथोचित सहायता और ढाढस बंधाकर विदा किया। उसने ईश्वर का धन्यवाद किया कि सेवानिवृत्ति के पहले दिन ही उसे आईना दिखाकर भविष्य को उद्देश्यपूर्ण व्यतीत करने के लिए ईश्वर ने उसे सचेत कर दिया। 

   शाम को आरती के घर लौटने पर रजनीश ने चाय की चुस्कियों के साथ अपने सेवानिवृत्ति के प्रथम दिवस की पूरी घटना विस्तार से सुनाकर उसकी सलाह मांगी। स्मित हास्य के साथ आरती ने रजनीश से कहा कि खाली हो न, इसलिए ऐसे नकारात्मक विचार तुम्हारे मन में आ रहे हैं। स्वयं के मन पसंद कार्यों को चुनकर दिन के चौबीस घण्टों में बांट दो। रही बात शरीर क्षय की तो मन जितना स्वस्थ होगा, तो शरीर भी उसी अनुपात में स्वस्थ रहेगा। उत्तम खानपान, उचित जीवन शैली और व्यस्त दिनचर्या से मन प्रसन्न रह सकता है। फिर रजनीश का हाथ अपने हाथ में लेकर आरती ने हौले से हाथों को दबाया और मुस्कुराकर आँखों में आँखें डालकर कहा - पार्टनर जीवन की इस दौड़ में तुम अकेले नहीं हो। मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। हम हँसते-हँसते यह दरिया पार कर लेंगे। 

   रजनीश का मन अब हल्का हो चला था। उसने निश्चय किया कि जीवन में उमंग के लिये, नीरसता हटाने के लिये वह प्रतिदिन कुछ समय अपने हमउम्र मित्रों के साथ बिताएगा। समाज सेवा कर, समाज से प्राप्त सुखमय जीवन के क्षणों का ऋण, ब्याज सहित समाज को वापस लौटाएगा। इसके लिए वह कल ही अपने हमउम्र मित्रों से बात कर, नि:शक्त, निस्सहाय, अस्वस्थ बुज़ुर्गों के लिए किसी सामाजिक संस्था से बात करेगा और संस्था की आर्थिक मदद करेगा।

   रात्रि भोजन के पश्चात रजनीश ने अपनी दिन भर की दिनचर्या और भविष्य की योजनाओं का विचारण किया। मानसिक रूप से अब वह पूर्णतः आश्वस्त हो चला था। स्वप्नलोक में जाने के पूर्व रजनीश ने पहले ईश्वर को पूरे दिन को अच्छी तरह व्यतीत करने, मन की शांति के लिए धन्यवाद दिया कि हे ईश्वर तू ही जीवन का वास्तविक ध्येय है। हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं। जो हमारी उन्नति में बाधक हैं। तू ही एकमात्र ईश्वरीय सत्य और शक्ति है। जो हमें अंतिम लक्ष्य तक ले चल सकता है।



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