सेवानिवृत्ति
सेवानिवृत्ति
आला सिंह सरकार में आला अधिकारी हैं । इतने "आला" अधिकारी कि "सरकार" के बाद बस उन्हीं की तूती बोलती है । उनकी इनायत के बिना एक पत्ता भी नहीं खड़कता है सरकार में । जब "सरकार" अपनी हो तो नौकर चाकर, गाड़ी घोड़े, सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं रहती है । फिर कोई आला अधिकारी बनता भी किसलिए है ? इसीलिए तो बनता है । आखिर सरकार में इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचे हैं तो "भजन" करने तो नहीं आये हैं ना । "प्रसाद" तो लेना ही होगा । फिर प्रसाद के बिना कैसे दर्शन और कैसी भक्ति ?
पैंतीस सालों की बेशकीमती सेवा के उपरांत आज उनकी बिदाई का समय आ ही गया। "आया है सो जायेगा , राजा रंक फकीर" । इसी तरह सरकारी सेवा में आने वाला हर व्यक्ति वो चाहे चपरासी हो या आला अधिकारी , सबको सेवानिवृत्त होना पड़ता है । आला सिंह ने सारे घोड़े दौड़ा लिए एक्सटेंशन के लिए । मगर उनके बाद वाला अधिकारी और भी तिकड़मी था । वह भी नंबर दो बनना चाहता था । एक दिन वह "सरकार" के पास पहुंच गया और कहने लगा "आला अधिकारी तो पढ़कर दस्तखत करते हैं , मैं बिना पढ़े करूंगा । और यदि आप चाहेंगे तो खाली कागज पर कर दूंगा" । अंधे को क्या चाहिए ? दो आंखें ही ना । जब चार चार आंखें मिल रही हो तो कौन मना करेगा ? इस तरह "तिकड़म सिंह" अब नंबर दो बन गये और आला सिंह की बिदाई तय हो गई ।
बिदाई की पार्टी हुई । चमचमाती । खर्च करने वाले बहुत हैं । बस वे इंतजार करते रहते हैं कि कब हुक्म हो और वे कब पार्टी करें ? एक से बढ़कर एक लजीज व्यंजन , एक से बढ़कर एक "ब्रांड वाली बोतल" । सब कुछ एक से बढ़कर एक। आखिर आला सिंह के रुतबे के अनुसार पार्टी हो रही थी ।
बिदाई के समय "प्रशस्ति गान" की "रस्म" निभानी पड़ती है । कुछ उसी तरह जिस प्रकार शादी में दुल्हन को "रोने" की रस्म निभानी पड़ती है । पहले अधिकारी चमचा सिंह जो आला सिंह के मातहत काम कर रहे थे , अब तिकड़म सिंह के मातहत काम करेंगे, ने उनकी शान में कसीदे काढ़ने शुरू किये ही थे कि तिकड़म सिंह ने आंखें तरेर कर देखा तो चमचा सिंह की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । उन्होंने तुरन्त पटरी बदल ली और तिकड़म सिंह के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए ।
ऐसी पार्टियों में यही होता है । "भूत" अब "भूत" बन गया । अब वह क्या बिगाड सकता है ? बिगाड़ेगा तो "वर्तमान" वाला । इसलिए प्रशस्ति गान भी उसी का होगा जो बिगाड़ने की हैसियत रखता हो । इसलिए बाकी अधिकारियों ने भी आला सिंह के लिए दो शब्द कहकर तिकड़म सिंह की तिकड़मों के गुणगान शुरू कर दिये ।
आला सिंह दांत पीस कर रह गए । वे अब किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे । मगर चमचा सिंह से उन्हें ये उम्मीद नहीं थी कि वह इतनी जल्दी बदल जाएगा । उनको चमचा सिंह के बदलने का इतना दुःख नहीं था जितना कि उसके इतनी जल्दी बदलने का था । कम से कम आज तक तो वफादारी निभानी चाहिए थी उसको ? उसके लिए क्या नहीं किया उन्होंने ? "सरकार" से कहकर उसके खिलाफ सारी जांचें बंद करवाई और उसे "क्लीन चिट" दिलवाई । मगर यह तो धोखेबाज निकला । अब उन्हें कौन समझाए कि "चमचा सिंह" कब किसी के सगे हुए हैं । वो तो बस सत्ता के ही वफादार रहते हैं । जो कुर्सी पर बैठा है , वही उनका बॉस है । यही सिद्धांत काम करता है सरकारी व्यवस्था में । चमचा सिंह भी इसी सिद्धांत का पालन कर रहा था ।
पूरे गाजे बाजे के साथ आला सिंह को दूल्हा बनाकर बारात के साथ रवाना किया गया । घर पर भी शादी समारोह जैसा माहौल था । सब रिश्तेदार , यार दोस्त और अड़ोसी पड़ोसी भी इंतजार कर रहे थे । सब लोग खुश थे ।
मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि "बिदाई" के अवसर पर सब लोग इतने खुश क्यों होते हैं ? एक ज्ञानी ने इसका मर्म समझाया
"बिदा होने वाला अधिकारी इसलिए खुश होता है कि वह बिना 'पुछल्ला' बांधे सेवानिवृत्त हो रहा है । पुछल्ला मतलब 'सोलह / सत्रह सी सी ए' से है यानी कि बिना चार्जशीट के ही 'मुक्त' हो रहा है वरना काम तो उसके ऐसे ऐसे हैं कि चार्जशीट देते देते खुद चार्जशीट रो पड़े कि अब बस करो । बस, इसीलिए वह खुश है ।
उसके मातहत इसलिए खुश होते हैं कि अब चार्जशीट की धमकी नहीं मिलेगी । बात बात पर डांट फटकार नहीं मिलेगी । अबे तबे नहीं होगी । दूसरे लोग इसलिए खुश होते हैं कि फ्री फंड में एक शानदार पार्टी मिल रही है । ऐसी पार्टियां रोज रोज कहां मिलती हैं ?
अड़ोसी पड़ोसी इसलिए खुश रहते हैं कि अब तक वह "सरकारी दामाद" था इसलिए मन मारकर सब कुछ सहन करते थे । मगर अब वह भी "सड़क" पर आ गया है यानी बराबरी का दर्जा पा गया है । तो खुशी तो बनती है ना ।
नाते रिश्तेदार भी इसलिए खुश होते हैं कि हर फंक्शन में ये अपनी चौधराहट चलाया करते थे ।और इनकी बात काटने की हिम्मत किसी की नहीं थी । मगर अब इनकी सुनने वाला कोई नहीं होगा । अब किसपे चलायेंगे ये अपनी चौधराहट ?
असली समस्या तो बीवी बच्चों की है । मगर बीवियां भी आला सिंह से कम नहीं होती हैं आजकल । वे तो सुनती ही नहीं हैं । जब ये "आला" अधिकारी थे तभी नहीं सुनी तो अब "नख दंत विहीन नागराज" की पूजा कौन करे ? और बच्चे ? उनकी तो दुनिया ही अलग हो गई है अब । वे तो तपाक से कह देते हैं कि "पापा , आपने अपनी जिंदगी जी ली ना । अब मेहरबानी करके हमें अपनी जिंदगी जीने दीजिए" । ऐसे में बड़ा से बड़ा आला अधिकारी क्या कर लेगा ?
मजा तो तब आता है जब चार पांच दिन बाद सारी गहमागहमी से मुक्त होकर वह जब पार्क में टहलने जाता है तो कोई उसे पहचानता तक नहीं ? ये बात बहुत चुभती है आला सिंह को । इतना बड़ा अधिकारी था वह और कोई जानता तक नहीं ? बहुत बड़ी नाइंसाफी है । फिर वह जनाना शुरू करता है । एक सज्जन जो बेंच पर बैठकर चुपचाप लोगों को देख रहे होते हैं , उनके पास जाकर वह अपने बारे में बताना शुरू करता है कि मैं फलाना सिंह । मैं जब फलां पोस्ट पर था तब मैंने ये किया , वो किया । यानी कि मैं तीसमारखां था ।
फिर वह बैंच पर बैठा आदमी बिना उसकी ओर देखे कहता है कि "मैं रिटायर्ड ब्रिगेडियर हूं" । आला सिंह चौंकता है । इतने में रिटायर्ड ब्रिगेडियर साहब कहते हैं "वो सामने सफेद शर्ट वाले सज्जन घूम रहे हैं ना वे पूर्व मंत्री हैं । वो जो हाफ पैंट में जॉगिंग कर रहे हैं वे रिटायर्ड जज हैं । एक बात भलीभांति समझ लीजिए कि रिटायरमेंट के बाद कोई अधिकारी, जज, मंत्री नहीं रहता । सबकी एक ही श्रेणी होती है "रिटायर्ड" । यानी अब आप दामाद की श्रेणी से निकलकर "फूफा" की श्रेणी में आ गए हो। अब आपके रूठने से कुछ भी फर्क पड़ने वाला नहीं है इसलिए भलाई इसी में है कि "सामंजस्य" बैठाना शुरू कर दो ।
धीरे धीरे आला सिंह "आम आदमी" बन जाता है । ना ना ना । आप ग़लत मत समझो । "सर जी" वाला नहीं । वो तो "सर जी" की तरह फर्जी है । ये तो "मैंगो मैन" वाला आम आदमी बनता है ।
