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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Others

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

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रेडियो

रेडियो

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कोई जमाना था जब रेडियो सबके आकर्षण का केंद्र हुआ करता था । जिस तरह एक "षोडशी" के प्यार में किशोर, युवा, अधेड़ व्यक्ति अपना दिल हथेली पर रखकर उसके आगे पीछे घूमते हैं । उसके नाज नखरे उठाते हैं , उसकी मिन्नतें करते हैं । उसके लिये चांद सितारे तोड़ कर लाने का माद्दा रखते हैं । और जब वह षोडशी किसी की बगलगीर बन जाती है तो वह शख्स खुद को दुनिया का बेताज बादशाह समझने लगता है । उसे जैसे कोई नायाब हीरा मिल गया हो और वह उस नायाब हीरा को पाकर फूलकर कुप्पा हो जाता है । बाकी लोगों को वह हेय दृष्टि से देखता है । शेखी बघारता है । कुछ वैसा ही हाल रेडियो के मालिक का होता था । जिसके पास रेडियो, समझो दुनिया उसी की । 

सबसे पहले हमें रेडियो का महत्व सन 1971 में पता चला । तब बांग्लादेश को लेकर भारत और पाकिस्तान में भयंकर युद्ध हो रहा था । मैं उस समय 8 - 9 वर्ष का था । हमारे घर में रेडियो नहीं था । हमारी दुकान हुआ करती थी जिस पर बहुत सारे लोग ग्राहक के तौर पर आते थे । मेरे बड़े भाईसाहब ने किसी आदमी को पटाया और उसका रेडियो मंगवा लिया । शाम को एक डेढ घंटे वह रेडियो हमारी दुकान पर बजता था जिसमें युद्ध से संबंधित समाचार सुना करते थे । दुकान पर उस अवधि में अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो जाया करती थी । चूंकि युद्ध चल रहा था इसलिए "ब्लैक आउट" लागू था अर्थात बिजली की आपूर्ति बंद कर दी गई थी । तब लालटेन या चिमनियों से काम चलाया जाता था । ऐसे में एक तो घुप्प अंधेरा, उस पर ऊपर आसमान में चिंघाड़ते हुए फाइटर विमान और ऐसे में रेडियो पर बम गिरने के समाचार ! कसम से , डर के मारे घिग्घी बंध जाती थी । उन दिनों "बी बी सी" के समाचार बहुत अधिक विश्वसनीय हुआ करते थे । आजकल तो बीबीसी कोई ऐजेंडावादी चैनल लगता है और वह पाकिस्तानी चैनल ज्यादा महसूस होता है । खौफ के साये में वे दिन गुजरे । अंत में भारत की विजय हुई और एक नया देश बांगलादेश विश्व के मानचित्र पर अवतरित हुआ । 


तब से रेडियो का क्रेज मन में बैठ गया था और इच्छा होने लगी कि घर में एक रेडियो होना चाहिए । भाईसाहब ने एक फिलिप्स का शानदार रेडियो खरीद लिया । उस दिन हमने अपने आपको "सिकंदर" समझ लिया । उन दिनों विविध भारती का बड़ा बोलबाला था । सुबह 7 बजे "ब्रज माधुरी" कार्यक्रम आता था जो सबको बहुत पसंद था । भजन, ब्रज के लोकगीत और हनुमान चालीसा सुनना बहुत भाता था । इसके अलावा ऑल इंडिया रेडियो की ऊर्दू सर्विस पर सुबह 8 बजे से 9 बजे के बीच एक फरमायशी गीतों का कार्यक्रम आता था जो मुझे और बड़े भाईसाहब को बहुत पसंद था । तब से फिल्मी गानों के बारे में जानना शुरू हुआ और फिर तो ये फिल्मी गाने, लोकगीत मेरी जान बन गये । 


कॉलेज तक आते आते यह रेडियो क्रिकेट की कमेंट्री के कारण हमारी आंखों का सितारा बन गया । एम कॉम में मैं उस रेडियो को अपने साथ जयपुर ले आया । रेडियो बजता रहता और मैं पढता रहता था । तब मुझे एक नया चस्का लगा । रेडियो पर उद्घोषक जब कहता था कि "अब आप फलां फिल्म का गाना फलां गायक की आवाज में सुनिये" , तब मैं यह बता दिया करता था कि कौन सा गाना आने वाला है । हर गाने के गीतकार, संगीतकार, गायक और गायिकाओं के नाम रट गये थे मुझे । उसी का परिणाम था कि मैं एक "अंत्याक्षरी प्रतियोगिता" जीत पाया । 


आज टेलीविजन और सोशल मीडिया ने रेडियो को उस "बूढ़े" आदमी की तरह बना दिया है जिसे परिवार में कोई नहीं चाहता । सब उसका तिरस्कार करते रहते हैं । वक्त वक्त की बात है । 



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