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Sulabh Agnihotri

Others

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Sulabh Agnihotri

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राम-रावण कथा

राम-रावण कथा

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‘‘ऐ! कौन हो तुम लोग? क्योंकर प्रविष्ट हुये यहाँ? अविलम्ब बाहर निकलो हमारी आम्रवाटिका से।’’ यह एक पन्द्रह वर्ष की किशोरी थी जो अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ला रही थी। 

क्रोधित होना स्वाभाविक भी था। अनुमानत: सौ-डेढ़ सौ घुड़सवारों के दल ने उसके आम के बाग में डेरा डाल दिया था। स्थान-स्थान पर घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे हुए थे, शेष निर्द्वन्द्व खुले घूम रहे थे। सभी के आगे आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। अनेक डालियाँ टूटी पड़ी थीं। अनेक लोग वृक्षों पर चढ़े हुए

थे।आम तोड़-तोड़ कर नीचे गिरा रहे थे, नीचे खड़ी भीड़ उन आमों को लपक कर ढेर बना रही थी। दूर एक ओर कुछ अधेड़ बैठे आम चूस रहे थे। एक ओर बने बड़े से तालाब में तीस-चालीस लोग स्नान कर रहे थे या जलक्रीड़ा कर रहे थे। उस किशोरी की आवाज पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सब यथावत अपने काम में लगे रहे। अधेड़ों और तालाब में घुसे लोगों तक तो उसकी आवाज पहुँची भी नहीं होगी।

‘‘सुनाई नहीं दे रहा तुम लोगों को, कुछ कह रही हूँ मैं? दस्यु कहीं के! तनिक सा वाटिका को जनशून्य देखा कि अतिक्रमण कर प्रविष्ट हो गये, सत्यानाश करने।’’ 

इस बार उसकी आवाज और तेज थी। आस-पास के कुछ लोगों ने उसकी ओर देखा किन्तु कोई ध्यान नहीं दिया। उसका क्रोध इस अवहेलना पूर्ण व्यवहार से और बढ़ गया। वह आगे बढ़ी और सबसे निकट के झुण्ड में खड़े एक युवा से आम छीनने का प्रयास करते हुये फिर चिल्लाई - 

‘‘ईश्वर ने गजकर्ण बनाया है, फिर भी सुनाई नहीं दे रहा। बधिर हो क्या?’’ 

उस लड़के के कान हाथी जैसे कदापि नहीं थे। उसने अपना आम वाला हाथ ऊँचा कर लिया और दूसरे हाथ से लड़की को हल्के से परे धकेल दिया। इससे लड़की और आवेश में आ गई उसने भी पलट कर पूरी शक्ति से युवक को धक्का दिया। युवक थोड़ा सा लड़खड़ाया फिर उसने दुबारा धक्का देने को उद्यत लड़की का हाथ पकड़ लिया। अब वह बोला -

‘‘सभ्यता से परिचय नहीं हुआ अभी तक क्या? एक धर दिया तो बत्तीसी बाहर आ जायेगी।’’

‘‘सभ्यता सिखा रहे हो मुझे?’’ उसकी पकड़ से छूटने के लिये दूसरे हाथ से उसकी कलाई को नोचने का प्रयास करती हुयी लड़की बोली- ‘‘सभ्यता से तुम्हारा स्वयं का योजनों (एक योजन बराबर लगभग ग्यारह किमी.) तक कोई संबंध रहा है कभी?’’

‘‘क्या हो रहा है उधर उन्मत्त?’’ दूर बैठे अधेड़ों को इधर की हलचल का शायद कुछ आभास हो गया था। उनमें से एक ने आवाज लगाई।

‘‘बाबा! यह कोई बालिका अकारण उत्तेजित हो रही है।’’ उस लड़के ने उत्तर दिया।

‘‘धैर्य रखो, मैं आता हूँ।’’ कहता हुआ वह उठा और इधर की ओर बढ़ चला। दो अधेड़ और भी उसके साथ हो लिये।

‘‘क्या बात है? छोड़ो उसे उन्मत्त!’’ अधेड़ ने निकट आते हुये कहा।

‘‘बाबा यह अकारण धक्के दे रही है, नोच रही है, काट रही है।’’ अपनी कलाई अधेड़ के सामने करते हुये उसने कहा।

‘‘क्या बात है बेटी, क्या हम लोग सौहार्द्रपूर्वक वार्ता नहीं कर सकते?’’ अधेड़ लड़की से सम्बोधित हुआ।

‘‘सभ्य व्यक्तियों के साथ ही सौहार्द्र से वार्ता संभव होती है। दस्युओं के साथ तो दस्युओं जैसा ही व्यवहार होना चाहिये।’’

‘‘छोड़ो, इस पर विवाद नहीं करता मैं, अपनी समस्या बताओ तुम।’’

‘‘आप सभी अविलम्ब मेरी वाटिका से बाहर निकल जाइये।’’

‘‘वह हम नहीं कर सकते पुत्री। हमारी विवशता है।’’

‘‘कैसी विवशता है। हृष्ट-पुष्ट तो हैं सब लोग। अपने अश्व सँभालिये और निकल जाइये यहाँ से।’’ लड़की के तेवरों में कोई अन्तर नहीं आया था, बस अपने से वयस में बहुत बड़े व्यक्ति को सम्मुख देख कर ‘तुम’ के स्थान पर ‘आप’ का प्रयोग करने लगी थी।

‘‘ऐसा नहीं है। हममें से अधिकांश न्यूनाधिक आहत हैं। तुम देख ही रही होगी कि मैं भी आहत हूँ।’’ पुन: बीच में कुछ बोलने को उद्यत लड़की को हाथ उठाकर रोकते हुये वह आगे बोला - ‘‘हम सब दो दिन से निरन्तर भाग रहे हैं, भोजन भी नहीं प्राप्त हुआ है इस काल में। अब आगे बढ़ने की न तो हमारी क्षमता है और न ही अश्वों की। हाँ कुछ प्रहर विश्राम कर साँझ तक हम यहाँ से स्वत: चले जायेंगे।’’

‘‘आप थके हैं या आहत हैं इससे आपको दस्युकर्म का अधिकार नहीं मिल जाता।’’

‘‘पुत्री, उक्ति है- ‘‘आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति!’’ फिर भी हम पूरी मर्यादा में रहने का प्रयास कर रहे हैं।’’

‘‘वाह! क्या मर्यादा है, सारी वाटिका का विध्वंस कर दिया। साँझ तक रुके तो जो बचा है वह भी विनष्ट हो जायेगा। आपको ज्ञात है, यही आम्र-वाटिका हमारी वर्ष-पर्यंत की जीविका का आधार है। अब क्या करेंगे हम?’’

‘‘तुम्हारी जो भी क्षति हुई है उसकी क्षतिपूर्ति के लिये सहर्ष तत्पर हैं हम।’’

‘‘मुझे क्षतिपूर्ति नहीं चाहिये। मुझे बस अपनी वाटिका में आप लोगों की उपस्थिति सह्य नहीं है।’’

‘‘भूखे को भोजन खिलाना तो तुम आर्यों में सबसे बड़े पुण्य का कार्य माना गया है। फिर हम तो तुम्हें पूरी क्षतिपूर्ति देने को तत्पर हैं।’’

‘‘तुम आर्यों में?’’ ओह इसका तात्पर्य है आप लोग अनार्य हैं! मैं तो सोच रही थी कि आर्य जाति इतनी जंगली कैसे हो गयी।’’

‘‘अब तुम अपनी सीमा का अतिक्रमण कर रही हो।’’ अधेड़ कुछ ऊँची आवाज में बोला।

‘‘अनार्यों के लिये मेरी कोई सीमा नहीं है। वैसे कौन हैं आप?’’

‘‘हम रक्ष हैं!’’

‘‘भाई माल्यवान आप विश्राम कीजिये जाकर, आप अधिक आहत हैं। मैं निपटता हूँ इससे।’’ अब तक शांत खड़े दूसरे अधेड़ ने उस व्यक्ति को बाँह पकड़ कर जाने का इशारा करते हुये कहा। फिर वहीं खड़े अपेक्षाकृत युवा से सम्बोधित हुआ - ‘‘वज्रमुष्टि ले जाओ इन्हें यहाँ से।’’

‘‘सुमाली! धैर्य से काम लेना।’’ पहले अधेड़ माल्यवान ने दूसरे अधेड़ सुमाली की बात मानकर जाते हुये कहा।

‘‘जी निश्चिंत रहिये।’’

‘‘मेरी बात सुन रहे हैं या नहीं?’’ लड़की पुन: चिल्लाई

‘‘सुन भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं किन्तु हमारी विवशता है कि उसे स्वीकार करना संभव नहीं है।’’ सुमाली ने पूरी गंभीरता से नम्र किन्तु दृढ़ स्वर में कहा।

‘‘क्यों?’’

‘‘हम तुम्हारा अधिकार स्वीकार करते हैं, इस नाते हम तुम्हें क्षतिपूर्ति देने को तत्पर हैं किन्तु सूर्यास्त से पूर्व हम यहाँ से जा नहीं सकते।’’

‘‘कितना हठ! कितनी उद्दंडता! कैकय राज्य में ऐसी उद्दंडता के लिये स्थान कदापि नहीं है।’’

‘‘अभी तो हमारी यह उद्दंडता चलेगी। हमारी विवशता है।’’ सुमाली का स्वर पूर्ववत था।

‘‘कैसे चलेगी। मैं अभी राज्याधिकारी को सूचित करती हूँ जाकर।’’

‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी। वैसे हमें तुम्हारे राज्याधिकारी का भय नहीं है और स्वयं अश्वपति इतनी शीघ्र आ नहीं सकते। सूर्यास्त के उपरांत कोई हमारी धूल तक नहीं खोज पायेगा।’’

‘‘आप रोकेंगे मुझे?’’

‘‘विवशता है, समझने का प्रयास करो। शांति से बैठो, अपनी क्षतिपूर्ति लो, सायंकाल हम स्वयं चले जायेंगे।’’

‘‘आप मेरे साथ बल प्रयोग करेंगे, एक निपट अकेली लड़की के साथ?’’

‘‘यदि तुमने वैसी स्थिति उत्पन्न कर दी तो करना ही पड़ेगा।’’ यह आवाज एक घुड़सवार की थी जो भीड़ लगी देख कर इधर आ गया था। ‘‘क्या हुआ है सम्पाती?’’ उसने भीड़ में खड़े एक युवक से पूछा।

‘‘कुछ नहीं भाई! यह लड़की पितृव्यों (पिता के भाई) से अनर्गल विवाद किये पड़ी है। कहती है अभी वाटिका से बहिष्कृत हो जाओ।’’

‘‘करो बल प्रयोग। मैं भी तो देखूँ कितने महान योद्धा हो तुम। आर्य कन्याओं से अभी पाला पड़ा नहीं है।’’ लड़की ने अब अपनी कमर में खुँसी कटार निकाल ली थी।

‘‘कटार की आवश्यकता नहीं है बेटी। हम तुम्हें कोई क्षति नहीं पहुँचायेंगे।’’

‘‘मत कहो मुझे बेटी। मुझे अनार्यों से कोई संबंध जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। न ही उनकी सहानुभूति की आवश्यकता है।’’

‘‘पिता आप चलिये। ये देव और आर्य स्वभावत: ही दम्भी होते हैं। इन्हें सभ्यता की भाषा समझ नहीं आती।’’

‘‘नहीं अकम्पन। तुम क्रोधी हो। तुम विवाद और बढ़ा दोगे।’’

‘‘नहीं पिता! मैं संयम ... आह!’’ उसका वाक्य बीच में ही रह गया। 

लड़की ने ‘‘कर बलप्रयोग’’ कहते हुये उस पर कटार से वार कर दिया था। कटार अकम्पन की जाँघ में घुस गयी थी। तभी वहाँ खड़े दूसरे लड़के ने पीछे से लड़की के बाल पकड़ कर, उसे खींच लिया और एक जोरदार तमाचा रसीद किया। वार पूरी ताकत से किया गया था। लड़की चक्कर खाकर जमीन पर जा गिरी। 

‘‘नहीं दण्ड!’’ उस लड़के को रोकते हुये सुमाली लपक कर लड़की को उठाने को बढ़ा पर लड़की ने उससे पहले ही उठकर कटार वाला हाथ घुमा दिया। इस बार कटार सुमाली की बाँह से छूते हुये निकल गयी। सुमाली ने बढ़ कर उसका कटार वाला हाथ पकड़ना चाहा पर वह फिर हाथ घुमा चुकी थी। सुमाली का हाथ बीच में आ जाने से वार चूक गया और घोड़े से उतरने के लिये झुके हुये अकम्पन की छाती की बजाय घोड़े की गर्दन में लगा। घोड़ा गर्दन को झटका देता हुआ एकदम अगले दोनों पैर उठा कर खड़ा हो गया। उसकी गर्दन के झटके से लड़की पलट कर गिर पड़ी। हठाथ उसके दोनों हाथ जमीन पर आये। पीछे से, नीचे आते घोड़े के दोनों पैर उसकी पीठ पर पड़े। लड़की की एक तेज चीख गूँज गयी। झटके से उसका सिर नीचे आया और उसके हाथ में थमी कटार उसके ही चेहरे में धँस गयी।

जब तक कोई समझे-समझे पलक झपकते यह सब हो गया। अकम्पन ने तत्परता से घोड़े को पीछे खींच लिया था पर फिर भी उसकी एक टांग लड़की की जाँघ पर पड़ गयी थी।

सुमाली ने झपट कर लड़की को सँभालने का प्रयास किया। उसकी आँखें मुँद रहीं थीं। उसके मुँह से अस्फुट शब्द निकले - ‘‘अगर चपला जीवित बची तो तुम राक्षसों को निर्मूल करने में अपना जीवन दाँव पर लगा देगी।’’ इसके साथ ही उसकी आँखें मुँद गयीं।

अकम्पन घोड़े से नीचे आ गया था।

‘‘सम्पाती अश्व का घाव देखो!’’ कहते हुये उसने झपटकर लड़की को उठाया और जिधर माल्यवान आदि बैठे थे उधर बढ़ चला।

‘‘पता नहीं क्यों इन आर्यों के मन-मस्तिष्क में इतना विष घुला है!’’ कहता हुआ सुमाली उसके पीछे चल दिया।


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