राम-रावण कथा- 1.2

राम-रावण कथा- 1.2

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माल्यवान, सुमाली और माली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे। 

वाल्मीकीय रामायण के अनुसार जब ब्रह्मा ने समुद्रों की संरचना की तो साथ ही कुछ जीवों की रचना की। इन जीवों को उन्होंने सागर की रक्षा का दायित्व दिया। उनके आदेश के उत्तर में जिन्होंने ‘रक्षाम:’ (रक्षा करेंगे) कहा वे ‘रक्ष’ कहे गये और जिन्होंने ‘यक्षाम:’ (यक्षण अर्थात् पूजन करेंगे) कहा वे यक्ष कहे गये।

इन आदि रक्षों में प्रमुख थे- हेति और प्रहेति नामक दो भाई। इनमें प्रहेति ने विवाह नहीं किया और तपस्या में रत हो गया। हेति का विवाह काल की बहन भया के साथ हुआ। इन्हीं से आगे रक्ष संस्कृति ने विस्तार प्राप्त किया। हेति का पुत्र विद्युतकेश हुआ। विद्युतकेश का विवाह संध्या की पुत्री सालकटंकटा के साथ हुआ। विद्युतकेश का पुत्र सुकेश हुआ। यह शिव और पार्वती का विशेष कृपापात्र था। इसी सुकेश के पुत्र थे माल्यवान, माली और सुमाली।

यक्ष और रक्ष संस्कृतियों का यद्यपि एक सी परिस्थितियों में एक ही समय और स्थान पर जन्म हुआ किंतु कालांतर में रक्ष दैत्यों और दानवों के निकट आ गये और उनके विपरीत यक्ष देवों के सहयोगी बन गये।

यहाँ पर थोड़ा सा देव, दैत्य और दानवों के विषय में जान लेना भी आवश्यक है। वाल्मीकि के अनुसार ये तीनों ही महर्षि कश्यप के पुत्र थे। 

कश्यप की अनेक पत्नियाँ थीं। (यह संख्या विभिन्न ग्रन्थों में ग्यारह से सोलह तक बतायी गयी है।) इनमें एक पत्नी अदिति से आदित्य अर्थात् देव उत्पन्न हुए। (देवों के विषय में विस्तार से आगे बताया जाएगा।) एक दिति से दैत्य और एक अन्य दनु से दानव। इस प्रकार ये तीनों सौतेले भाई थे। सौतेले भाइयों का झगड़ा तो विश्व इतिहास में आम है। प्राय: ही सौतेले भाइयों में विवाद रहता है कि दूसरे ने हमारा हक मार लिया। यहाँ भी यही था। 

यद्यपि यह पारिवारिक सत्ता-संघर्ष था, तथापि, तत्कालीन सम्पूर्ण राजनीति इसके चलते दो खेमों में बँट गयी। एक खेमा था देवों का और दूसरा दैत्यों और दानवों का। आर्य देवों के समर्थक ही नहीं अनुयायी थे तो रक्ष दैत्यों और दानवों के निकट थे। यही कारण था कि आर्यों को दैत्यों और दानवों के साथ-साथ रक्षों से भी उतनी ही घृणा थी।

देव स्वयं में कोई अपराजेय शक्ति हों ऐसा नहीं था। दैत्यों और दानवों ने उन्हें बार-बार पराजित किया। बाद में माल्यवान आदि ने और उनके बाद रावण ने भी देवों को पराजित किया। किंतु जो तथ्य देवों को प्रबल बना देता था वह यह था कि तत्कालीन तीनों महाशक्तियाँ, ब्रह्मा, विष्णु और शिव, देवों से आंतरिक सहानुभूति रखती थीं। इनमें ब्रह्मा और शिव का तो यह प्रयास रहता था कि उन पर प्रत्यक्ष रूप से देवों का पक्षधर होने का आरोप न लगे। विशेषकर शिव तीनों में सबसे सहज-सरल थे। जो भी उनके पास भक्तिभाव से जाता था वे उस पर कृपालु हो जाते थे। सारे ही दैत्य और दानव शिवभक्त रहे हैं। रावण स्वयं भी शिवभक्त था।

ब्रह्मा और शिव के विपरीत विष्णु सदैव खुलकर देवों के पक्ष में खड़े होते थे। स्वाभाविक भी था, वे स्वयं भी आदित्य थे, देवराज इंद्र के छोटे भाई थे। विष्णु की देवों के पक्ष में उपस्थिति ही सत्ता के संतुलन की तुला उनके पक्ष में झुका देती थी। वस्तुत: विष्णु की कूटनीति की किसी के पास कोई काट नहीं थी। जब भी दैत्यों, दानवों और बाद में रक्षों ने देवों को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार किया, अंतत: विष्णु के ही पराक्रम और कूटनीति से ही देव पुन: स्वर्ग की सत्ता हस्तगत करने में समर्थ हुए। आवश्यकतानुसार विष्णु साम-दाम-दंड-भेद सभी विधियों का प्रयोग करने में अति कुशल थे। उनका सिद्धांत था कि बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिये छोटे सिद्धांतों का त्याग भी करना पड़े तो बेहिचक कर देना चाहिये। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते विष्णु को कभी पराजय का स्वाद नहीं चखना पड़ा। इन्हीं समरूप विशिष्टताओं के चलते कालांतर में कृष्ण को पूर्ण विष्णु की उपाधि से सम्मानित किया गया।

देव, रक्ष, दैत्य या दानव आर्यों से कोई भिन्न जाति हों ऐसा भी नहीं था। ये सभी आर्य संस्कृति की ही उपसंस्कृतियाँ थीं। आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया था। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर में इस्लाम स्वीकार कर लेने वालों को हिन्दुओं ने पूर्णत: त्याज्य मान लिया। आर्य और देव बाकियों को हेय मानते थे और बाकी सब अपनी महत्ता स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे। 

बात करते हैं माल्यवान, सुमाली और माली की। लंका नगरी इन भाइयों ने ही बसायी थी। इन लोगों ने इंद्र को पराजित कर स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया था किंतु फिर विष्णु से बुरी तरह पराजित हुए। इस युद्ध में सबसे छोटा भाई माली विष्णु के हाथों मारा गया। इस समय ये लोग, विष्णु से पराजित होकर, बचे हुए मुट्ठीभर सैनिकों के साथ अपनी जान बचाने के लिये भाग रहे थे। विगत दो दिनों से ये लगातार भाग रहे थे। जान बचाने के चक्कर में इन्हें भोजन आदि भी प्राप्त नहीं हुआ था इसीलिए इन्होंने दिन में इस सुनसान बाग में शरण ले ली थी। संयोग से यह बाग चपला का था और उससे इनका झगड़ा हो गया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि भले ही उनकी संस्कृति रक्ष है, किन्तु आर्य तो वे भी हैं, फिर इन आर्यों के मन में उनके लिये ऐसा विकट, अतार्किक द्वेष क्यों है? क्या बिगाड़ा है उन्होंने इन आर्यों का। उन्होंने तो देवराज पर आक्रमण किया था, इस आर्यभूमि के किसी सम्राट से तो उनका कोई विवाद था ही नहीं। 

बहरहाल, कहानी से जुड़ते हैं।

माल्यवान और सुमाली दोनों ही अपना विश्राम और भोजन भूल कर चपला के उपचार में लग गये। चोट गंभीर थी। यदि अविलम्ब उपचार न मिला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक नहीं रहेगी। पूर्ण पक्षाघात का शिकार भी हो सकती है। भाग्य से उपचार की कुछ सामग्री उनके साथ थी। वाटिका में तलाश करने से भी कुछ बूटियाँ मिल गयीं। बस्ती में जाना दुस्साहस सिद्ध हो सकता था, अगर किसी भी प्रकार से विष्णु के किसी व्यक्ति के संज्ञान में उनकी यहाँ उपस्थिति आ गयी तो अनिष्टकारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हुआ घाव गंभीर था। जबड़ा चटक गया था। दाहिने जबड़े से लेकर आँख के नीचे की हड्डी तक बुरी तरह से कट गया था। उसका उपचार कर दिया गया, पर उन्हें लग रहा था कि चेहरा सदैव के लिये कुरूप तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने की संभावना है। जाँघ के दोनों ओर खपच्चियाँ रख कर औषधि लगाकर बाँध दिया गया था। अभी बच्ची है अस्थि आसानी से जुड़ जायेगी यद्यपि चाल में लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ में थी। अश्व के पैर पड़ने से रीढ़ की हड्डी के कई संधिस्थल अपने स्थान से हट गये प्रतीत हो रहे थे। माँस पेशियाँ भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे! सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। ‘काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती’ - सुमाली ने सोचा।


साँझ होते-होते दो और बालक आ गये। वे लड़की की अपेक्षा सहिष्णु साबित हुये थे। अगर वे भी लड़की जैसे ही निकलते तो लड़की के हित में बहुत घातक हो सकता था पर उन्होंने बिना हाथापाई किये सारी बात सुनी। माल्यवान ने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया। जो-जो उपचार कर दिया गया था वह समझा दिया। आगे के लिये आवश्यक निर्देश भी दे दिये। सूरज ढलने तक उन दोनों को रोके रखा गया। फिर सबने अपने-अपने अश्वों पर सवार होकर आगे की यात्रा आरंभ की। सुमाली का बड़ा पुत्र प्रहस्त सबसे बाद में निकला। जब सब आँखों से ओझल होने की कगार पर आ गये तब वह लड़कों से बोला -

‘‘इसे अतिशीघ्र किसी कुशल वैद्य के संरक्षण में ले जाना। एक व्यक्ति जाकर एक चारपाई और कुछ व्यक्तियों को लिवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे, सावधानी से, कटि प्रदेश में तनिक सा भी आघात न लगने पाये अन्यथा अत्यंत विषम परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है।’’ 

इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड़ लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बातें करने लगा। अब लड़के अगर बस्ती में जाकर उनकी सूचना दे भी देते तो कोई उनकी हवा भी नहीं पा सकता था। 

हाँ! क्षतिपूर्ति लेना इन लड़कों ने भी किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया था।


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