मयांक मेरा बेटा है
मयांक मेरा बेटा है
हम गलियारे पर ऑपरेशन थियेटर के सामने बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे । हमारी उंगलियां बंधी हुई थी। दरवाज़े के ऊपर कौन से रंग की बत्ती जलेगी ? मयांक , मेरा बेटा, रोने को हो आया ।
डॉ. पारिकर दरवाज़े से निकले । दरवाज़े के ऊपर की बत्ती लाल थी । ज़रूर कुछ संगीन है । उन्होंने कहा कि अनुराधा , मयांक की पत्नी , की स्थिति अत्यंत नाज़ुक है । हमें तय करना होगा कि किसे बचाए । अनु को या बच्चे को। हम स्तब्ध हो गए । मुझे माया याद आ गई ।
मुझे याद आए वो दिन जब माया हमारे घर आई । वो हमेशा मेरी सुंदर और सुशील पत्नी होने का वादा निभाया । उसने अपने आपको हम पर समर्पित कर दिया। पर मैं ठहरा अमानुष । उसके उदार और भोलेपन का बख़ूबी फायदा उठाया । मुझे याद है वो दिन कैसे मैंने उसके साथ कितने खराब तरीके से व्यवहार किया जब मैंने अपने दोस्तो के सामने उसे पैमाना बनाना सिखा रहा था । अपने पिसते हुए दांतो से उसे बताने की कोशिश की। वो कुछ नहीं बोली । चुपचाप आंसु पिए और मुझे खुश करने के लिए सब कुछ सीख लिया । उसने मुझे खुश करने की पुरजोर कोशिश की । कभी मैं उस पर मेहरबान हो जाऊं । कभी इंसान बनकर उससे इंसानों जैसा बर्ताव करूं। पर उसकी सारी कोशिशें नाकाम रही। मैं इंसान बन नहीं पाया और वो अपना समर्पण छोड़ नहीं पाई। मैंने कभी उसके काम को अपना नहीं माना । मैं अपने में , अपने काम के सिवाय किसी और चीज़ को तवज्जू देना कभी ज़रूरत नहीं समझा । उस पर सारे काम का भार था । घर का भार , परिवार की देखरेख , मेरा ख्याल , सब ।
जब वो गर्भवती हुई , उसने खुद से घर का काम संभल लिया । वो मुझे , मेरी सोच और मेरे जवाब को जानती थी। इसलिए कभी उसने नौकरानी की ज़िद नहीं की । मेरे माता पिता वृद्ध हो चुके थे , और वो खुद मरीज़ थे। इसलिए वो लोग उसका उतना ख्याल नहीं रख पाए। उसने हर पल के दर्द को अकेले झेला । रातों को वो से नहीं पाती थी । मैं इन सबसे अनजान या यूं कहिए इन सबको नज़रंदाज़ किए सभा -सम्मेलन , भोज , औफिस और यात्राओं में मशगूल था । मैं सोचता था वो संभाल लेगी । इंसान को खुद का कार्य करना आप करना चाहिए। पर मुझे क्या मालूम इंसान को इन सब के बाद किसी का साथ भी चाहिए। जब वो दर्द से जूझ रही थी , और संभाल न सकी , उसने मेरे घर लौटने का इंतज़ार किया । जब मुझे उस नाज़ुक हालत के बारे में पता चला तो मैं तुरन्त माया को नजदीकी अस्पताल में ले गया । डॉक्टर ने मरीज़ की हालत देखते ही मुझको डांटा। मैंने उसे यहां लाने में इतनी देर क्यों की । माया की स्थिति मेरी सोच और समझ से काफ़ी ज़्यादा नाज़ुक और गम्भीर थी । डॉक्टरों ने काफ़ी कोशिश की । परन्तु मेरा दुर्भाग्य मैंने उसे खो दिया । ईश्वर ने उसे मुझसे ले लिया ।
आज अगर माया ने अपने कुछ अंश मयांक में छोड़े होते तो अनुराधा को माया की किस्मत न मिली होती । अब अनुराधा की स्थिति के बारे में कुछ कह नहीं सकता पर इतना ज़रूर बता सकता हूं के मयांक मेरा बेटा है ।