मंजिल को एकटक देखती रह जाती हूं
मंजिल को एकटक देखती रह जाती हूं
यूं तो गिनती के लोग हैं। मेरी जिंदगी में जो मेरा साथ देते हैं या हौसला बढ़ाते हैं। जब कभी मैं अपने ख्यालों के छत पर हजारों मीलों दूर कहीं अपनी मंजिल को देखती हूं, मैं दावे के साथ हरगिज नहीं कह सकती की वो कहीं दूर धुंधली सी जो दिख रही है वो मेरी मंजिल है। ये बात स्पष्ट तब होगी जब में उस मुकाम पर पहुंचूंगी हां हो सकता है वो मेरी मंजिल की महज एक सीढ़ी हो और ना जाने कितनी दूर अभी और जाना हो पर जब उस धुंधली सी मंजिल को देखती हूं तो मुझे उस रास्ते में खड़ी जिम्मेदारियां भी इंतजार करती दिखाई देती हैं।
उस वक्त वो मेरी मंजिल दूर ही नहीं बल्कि उस मंजिल तक पहुंचना असंभव महसूस होता है और फिर मैं कहीं अपने आप को बेबस और लाचार महसूस करती हूं की मैं सिर्फ देख सकती हूं वो सपने पर पूरा नहीं कर सकती। फिर उस वक्त मैं उस गिनती के लोगों का साथ चाहती हूं जो मंजिल तक जाने में दिलचस्पी ना रखे सही पर मेरा हौसला जाया करे की तू आगे तो बढ़ , कदम तो बढ़ा जो जिम्मेदारियां है वो भी उठा लेगी और तू मंजिल भी हासिल कर लेगी। पर अफसोस उस वक्त में खुद को अकेला पाती हूं और खुद के ख्यालों से हार जाती हूं। ऐसा नहीं है वो गिनती के लोग आते नहीं है आते हैं। पर मेरा हाथ पकड़ने से पहले मेरा हाथ छोड़ने पर यकीन रखते हैं। या फ़िर अपनी बात ऊपर रखने पर और फिर वापिस लौट जाते हैं। और मैं मंजिल को एकटक देखती रह जाती हूं!