क्या यह भी प्रेम

क्या यह भी प्रेम

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रसोई घर मे एक चूहा इधर कुछ दिन से रोज ही नजर आ जाता है। सारे जतन करके हार गयी, पतिदेव ने एक दो बार उसे भगाने की नाकाम कोशिश भी की। फिर भी न जाने कौन से चोर रास्ते से साहब रसोई घर मे घुस आते है ये अभी भी रहस्य ही बना हुआ है। ईधर अपने शस्त्रो को धराशायी होते देख श्रीमानजी ने आरोप बाण चलाया कि तुम ज़रूर कुछ खाने के लिए छोड़ देती हो बाहर, तुमने ही हिला रखा है इसे, अब भुगतो तुम्हीं। 

मैंने भी निश्चय किया कि हो न हो इस चूहे से छुटकारा तो पा कर रहूंगी। 

ढक्कन वाला कूडेदान लगा दिया गया। रसोईघर की अलमारियों की खिडकियों दुरूस्त करा दी गईं। कच्ची सब्जियों की टोकरियाँ ढक्कनदार हो गयीं।. फलों की टोकरी का स्थानांतरण भी खाने की मेज से पढाई की मेज पर दूसरे कमरे मे हो गया। कहीं भूल से भी आटा, रोटी अनाज घर के किसी भी कोने मे न छोडा जाता पर हे गजानन वाहन, तुम्हारा आगमन नियमित रूप से यथावत होता रहा। अक्सर जब भी रसोई की लाईट ऑन करती, तुम्हारे दर्शन हो ही जाते। अब सीधी ऊँगली से काम न चला त़ मुझे भी टेढी ऊँगली करनी पडी और अब चूहेदान व चूहेमार दवाओं को आजमाया गया। तुम भी ठहरे बुद्धि के स्वामी, प्रथम पूज्य गणनायक के सेवक। कहाँ छलावे मे आने वाले। सारे प्रयत्न विफल हुए। 

अब हार मुझे विघ्नहर्ता की शरण मे ही जाना पड़ा। प्रथमपूज्य ईश का वरदान ले मैंने तुम्हें पकड़ने को मेट लगा दी। तुम फिर भी बच निकले। तुम्हारे हाथों मिली शिकस्त से खीजकर मैंने भी अब अपना शातिर दिमाग दौडाया और तुम्हें फँसाने को मेट के पर एक मोदक रख दिया। ये प्रलोभन तुम भी न बिसरा सके और आ ही गये उस मेट के बीचोंबीच, बडे स्वाद से तुमने मोदक खाया। पर यह क्या, तुम तो भागकर छिप जाना चाहते थे वहीं जहाँ से आँख मिचौली का खेल खेला करते थे। पर इस बार तुम असहाय थे। 

अब तुम नहीं हो फिर भी जब भी रसोई का दरवाज़ा खोलती हूँ, लगता है तुम हो पर तुम कहीं नहीं। न जाने ऐसा क्यूँ होता है कि जिनसे आप छुटकारा पाना चाहते हो वो भी आपकी आदतों मे शुमार हो जाते हैं। क्या यह भी प्रेम है।


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