कुरूप
कुरूप
जला दिया था खूबसूरत चेहरा और शरीर। अभी कुछ दिन पहले ही फेशियल कराया था। कितनी चमक थी मेरे चेहरे पर। पूरे शरीर पर लावण्य बिखरा हुआ था। एक एक पैसा जोड़ कर कराया था कायाकल्प। भीतरी बाहरी हर जगह कुछ न कुछ बदलाव था मुझ में। पड़ोस वाला मेरी उम्र का मुझसे कहीं ज्यादा उम्रदराज लग रहा था। पैरो पर एक धब्बा न था हाथों को करीने से सजाया था। मेरे वक्ष और पेट की एक एक इंच जगह पर ऐसी नक्काशी की गई कि मेरा सौंदर्य निखर आया। सामने वाले की छोटी सी मुझे देखकर कुढ़ रही थी। मेरे नयन नक्श थे ही इतने तीखे कि कोई भी एक बार देखे मुड़ मुड़ कर देखता जाए। बाबू जी कह रहे थे कि इस बार नवरात्रि में इसको इतना सजाएंगे कि गली के सारे लोग इसे देखकर जल जायेंगे। "जल जायेंगे" शायद बहुवचन का प्रयोग सफल नहीं हुआ। मुझे ही जला दिया गया। एक कनस्तरी केरोसिन ने मेरे बाबू जी की तीन महीने की मेहनत खराब कर दी। मुझे जला दिया गया सिर्फ इसलिए कि मैं दूसरे समुदाय से हूं। मुझपर पत्थर मारे गए, मेरे बाबूजी को ललकारा गया, मेरी माताजी को घसीट कर बाहर निकाला गया। पर मेरे अंदर सो रहा मन्नू बाहर न आ सका। हाय! नहीं बचा सका उसको कोई और साथ में जल गए मेरे सारे अरमान। अब मैं बहुत ही बदसूरत हूं, अब कोई न देखेगा मुझे। हां बस पत्रकारों के कैमरे मुझपर तरस खाते है।उनके लिए मैं विकृत हूं पर आकर्षक हूं। मैं दिल्ली के यमुनापार में रहता हूं। ये एक साल पहले की बात है। अरे! मैं इंसान नहीं हूं।
