करवाचौथ
करवाचौथ


करवाचौथ आ रहा है। हर साल की तरह। बाजार चौड़ा रहे हैं। आर्डर बुक हो रहे। विवाहिताएं तैयार हैं । वो भी जिन्हें पति दो पैग के बाद इस बात पे कूट देता की आज आलू की सब्जी काहे बनाई है। अरहर की दाल के काहे नाहीं। (वो न तो आलू लाया रहा, न अरहर की दाल, पत्नी पड़ोस से मांग कर लाई थी )। वो भी जिन्हें रात को पति के खर्राटों से कुढ़ होती है। वो भी जिन्हें पति के पसीने या पायरिया की सड़ांध से उबकाई आती है। और सामने ही मुंहबंद गाली देती हैं, बाद में मुंह फाड़कर। वो भी जिन्हें पहले प्रेम की शिद्दत से याद आती रहती है।
अब मुद्दे पर। अभी करवाचौथ को पुरुष समाज की साजिश बताने पर इक लोग भड़क गए। जवाब था। मैं दुराग्रह ग्रस्त हूँ। इसलिए की अविवाहित हूँ। कोई व्रत रखने वाला नहीं है। मसलन मुझे शादी उम्र बढ़वाने के लिए कर लेनी चाहिए। कुछ शुभचिंतक मेरे कपड़े धोने की दिक्कत, खाना बनाने की समस्या..पर इक ही प्रस्ताव देते रहे हैं -शादी। इन्हीं के मुताबिक पत्नी अपने गुजारे के लिए कपड़े धोने वाली या खानसामा... या इन्हीं जैसी प्रजातियों वाली जीव है। इनसे ये सुविधाएं किराये पर हासिल
करने की बाबत जवाब था, इत्ते खर्चो से कुल जमा पत्नी सस्ती पड़ती है।
ये बात आपत्तिजनक हो सकती है। वैसे ही जैसे मेरी इक कहानी पग्गल घाट पर महिला पाठकों और कुछ तथाकथित भद्र जनों ने घोर आपत्ति की थी। आज भी करते हैं। यानी चूल्हा, चौका, बर्तन मांजने की तरह व्रत रखने की भी जिम्मेदारी महिलाओं की ही है। इनमें आधी आबादी की आजादी कम मुक्ति का झंडा बुलंद करने वाली भी हैं। इनके लिए ( जितना मैंने जाना) आजादी का मतलब विवाहेत्तर संबंध हैं। मेरी जानकारी में ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जिसने बेटी, बहन, माँ या पत्नी के लिए व्रत रखा हो। ऐसे ही कभी इक बुजुर्ग ने बताया था, संवरने सजने के बारे में। पायल के बारे में ये था कि बजने से पता चलता रहे कि पत्नी घर में ही है। बिछिया, सिन्दूर से पता लगे कि वो विवाहित है। इसी तरह चूड़ी, नथुनी, महावर, लाली, बालों के बारे में तफ्सील से बताये थे। तब मैंने जाना की पुरुष इतना अविश्वासी है महिलाओं को लेकर, वो जो तमाम व्रत रहती हैं- निर्जला जैसा भी। और वो सारी उम्र भ्रम में खटती रहती हैं। बातें और भी हैं। गहरे राजफाश फिर कभी।