कलाबोक
कलाबोक
कलाबोक (बन)
(रूसी परी-कथा)
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
एक समय की बात है, एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे. बूढ़े ने कहा:
"बुढ़िया, कलाबोक ('बन' – अनु.) पका ले!"
"पकाऊँ तो किससे? आटा नहीं है," बुढ़िया ने जवाब दिया.
"ऐ-ऐख़, बुढ़िया! डिब्बा तो खुरच. अंबार में देख : काफ़ी आटा मिल जायेगा."
बुढ़िया ने एक पंख लिया, डिब्बे के भीतर खुरचा, अंबार में झाडू लगाकर इकट्ठा किया, और उसे दो मुट्ठी आटा मिल गया. दही में गूंधा, घी में तला और खिड़की में ठण्डा होने के लिये रख दिया.
'कलाबोक' पड़ा रहा – पड़ा रहा, और अचानक लुढ़क गया – खिड़की से बेंच पर, बेंच से फ़र्श पर, फ़र्श पर लुढ़कते हुए दरवाज़े तक, दहलीज़ फांद कर पहुंचा ड्योढ़ी में, ड्योढ़ी से पोर्च में, पोर्च से - आँगन में, आँगन से गेट के पार… आगे-आगे लुढ़कता ही गया.
लुढ़क रहा है कलाबोक रास्ते पर, और सामने से आया ख़रगोश:
"कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा!"
"न खा मुझे, टेढ़े ख़रगोश! मैं तुझे गाना सुनाऊँगा," कलाबोक ने कहा और वह गाने लगा:
"मैं कलाबोक, कलाबोक!
डिब्बे से खुरचा मुझे,
अंबार से समेटा,
दही में गूंधा मुझे,
तेल में तला,
खिड़की में किया ठण्डा:
मैं दादा से भागा दूर,
मैं दादी से भागा दूर,
और तुझसे भी, ऐ ख़रगोश,
मुश्किल नहीं है भागना!"
और वह लुढ़क गया आगे-आगे: ख़रगोश उसे देखता ही रहा!
लुढ़क रहा था कलाबोक, और सामने से आया भेड़िया:
"कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा!"
"मत खा मुझे, ऐ भूरे भेड़िये! तुझे सुनाऊँगा मैं गीत," कहा कलाबोक ने और लगा गाने:
"मैं कलाबोक, कलाबोक!
डिब्बे से खुरचा मुझे,
अंबार से समेटा,
दही में गूंधा मुझे,
तेल में तला,
खिड़की में किया ठण्डा:
मैं दादा से भागा दूर,
मैं दादी से भागा दूर,
मैं ख़रगोश से भागा दूर,
और तुझसे भी, ऐ भेड़िये,
मुश्किल नहीं है भागना!"
और लुढ़क गया वह आगे-आगे. भेड़िया देखता रह गया.
लुढ़क रहा था कलाबोक, सामने से आया भालू:
"कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा."
"मत खा मुझे, टेढ़े पंजों वाले! तुझे सुनाऊँगा मैं गीत," कलाबोक ने कहा और गाने लगा:
"मैं कलाबोक, कलाबोक!
डिब्बे से खुरचा मुझे,
अंबार से समेटा,
दही में गूंधा मुझे,
तेल में तला,
खिड़की में किया ठण्डा:
मैं दादा से भागा दूर,
मैं दादी से भागा दूर,
मैं ख़रगोश से भागा दूर,
मैं भेड़िये से भागा दूर,
और तुझसे भी, ऐ भालू,
मुश्किल नहीं है भागना!"
और फ़िर से लुढ़क गया, भालू देखता ही रहा!
लुढ़कता रहा, लुढ़कता रहा कलाबोक, और सामने से आई लोमड़ी:
"नमस्ते, कलाबोक! कितना अच्छा है तू. कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगी."
"मुझे न खा तू, ऐ लोमड़ी! मैं तुझे सुनाऊँगा गीत," कलाबोक ने कहा और गाने लगा:
"मैं कलाबोक, कलाबोक!
डिब्बे से खुरचा मुझे,
अंबार से समेटा,
दही में गूंधा मुझे,
तेल में तला,
खिड़की में किया ठण्डा:
मैं दादा से भागा दूर,
मैं दादी से भागा दूर,
मैं ख़रगोश से भागा दूर,
मैं भेड़िये से भागा दूर,
मैं भालू से भागा दूर,
और तुझसे भी, ऐ लोमडी,
भाग जाऊँगा बेहद दूर!"
"कितना अच्छा गाना है!" लोमड़ी ने कहा. "मगर, कलाबोक, मैं बूढ़ी हो गई हूँ, मुझे कम सुनाई देता है: मेरे थोबड़े पे बैठ जा और एक बार फ़िर से ऊँची आवाज़ में सुना दे."
कलाबोक उछलकर लोमड़ी के थोबड़े पर चढ़ गया और वही गीत गाने लगा.
"शुक्रिया, कलाबोक! बहुत अच्छा गीत है, मैं और भी सुनती! मेरी जीभ पर बैठ जा और आख़िरी बार सुना दे," लोमड़ी ने कहा और अपनी जीभ बाहर निकाल दी; कलाबोक उसकी जीभ पें कूदा, और लोमड़ी ने – उसे गटक लिया! और कलाबोक को खा गई.
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