खेल का शौक़
खेल का शौक़
दिन भर के दफ़्तर की माथापच्ची के बाद मैं घर लौट रहा था । जबसे मेरी नौकरी लगी थी, अच्छी सी पदस्थापना की खुशी और चुनौतियों ने मुझे एक अजीब से जंजाल में घेर लिए था। पूरे दिन सिर्फ कामकाज की बातें और उसी की चिंता में बीत रहा था।
आज दफ़्तर गया तो मैं कुछ पुराने ईमेल खोल कर देखने लग गया । मेरी निगाह अचानक ही एक जगह ठहर गई थी--इंजीनियरिंग कॉलेज में आख़िरी वर्ष था। उसी वर्ष फुटबॉल का विश्व कप खेल होने वाला था।
मैं अमूमन क्रिकेट में इतना दिलचस्पी नहीं लेता था जैसे कि मेरे अन्य साथी जो क्रिकेटर खिलाड़ियों के दीवाने हुआ करते थे और खेल को "फॉलो" किया करते थे। हाँ, लेकिन फुटबॉल से बचपन से लगाव था जो विश्व कप खेलों की वजह से उस वर्ष दीवानगी में बदल गई।
आखिरी वर्ष की गंभीर पढ़ाई का संतुलन बनाये रखने के लिये मैं जब भी अवसर मिलता, गेंद लेकर खेलने निकल जाता। कुछ साथी कभी साथ होते, कभी नहीं। मुझे फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिये यह खेल, सिर्फ खेल नहीं था, एक प्रकार की साधना, ध्यान की तरह था जिससे मुझे चहुरंगी लाभ होता था। शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन के साथ ही पढ़ाई में मुझे एकाग्रता में सहायक होता था यह गेंद । उन दिनों गेंद मेरा सबसे क़रीबी साथी था ।
कॉलेज से निकलने के साथ मैंने दो महीने तक जम कर अपने इस दोस्त के साथ वक़्त बिताया । मेरा एकमात्र करीबी दोस्त सागर कभी कभी चुटकी लेते हुए कहता था-"आकाश, इतने वर्षो में हम दोनों की दोस्ती में कोई ख़लल नहीं पड़ी, किसी लड़की से भी हम दोनों को प्यार नहीं हुआ, पर हाँ अब मुझे लगता है कि तुझे यह गेंद मुझसे भी अधिक प्यारा है।" ऐसी कोई बात नहीं साग़र, तू तो मेरा जिगरी दोस्त है। हाँ यह खेल मेरे लिये 'therapeutic' है, pleasure hormone है, तू सच कहता है, आई जस्ट लव द गेम।"
अब इस बात को साल भर से अधिक बीत गया था। उन दिनों कभी- कभी मैं पढ़ते पढ़ते रात के बारह बजे भी खेलने मैदान में निकल जाता। ऐसे ही किसी रात को आकाश ने खेलते वक़्त मोबाईल से मेरी फ़ोटो खींच लिए कहते हुए की वो मेरी शिकायत करेगा होस्टल वार्डन से। हालांकि उसने ऐसा कभी नहीं किया। पर उन सभी तस्वीरों को उसने मुझे ईमेल कर दिया। आज उन्हीं तस्वीरों पर नज़रें रुक गई थीं।
शाम को दफ्तर से निकलते ही सीधे मैं स्पोर्ट्स की दुकान पर गया था। अपनी पसंद की गेंद ख़रीद कर मुझे अपनी पूरी दुनिया मुट्ठी में मिल जाने सा आभास हुआ। गेंद अपनी बगल में दबाए, एक हाथ में दफ़्तर की बैग लिये घर लौटते क़दमों में गजब की मजबूती और दिल में मन भर का उतावलापन। लग रहा था कब बैग पटकूँ और खेलना शुरू कर दूं। मग़र दफ्तर के ज़रूरी कागज़ात उसमें थे। चलो, कुछ कदम और, फिर घर आ जायेगा।
ये सागर भी आज अपने असली घर जा रहा था, जहां उसकी मुलाकात स्वयं उसी से होने जा रही थी।
और इस नए जोश में मेरी बाकी दिनों की थकान जैसे काफूर हो चुकी थी। अब शाम का वक़्त मेरा है। मैं और मेरे खेल के शौक का। अब ये साथ ज़िन्दगी भर न छूटे। ज़िन्दगी छूटे, तब ही छूटे। सच ही कहा है किसी ने, शौक़ है तो ज़िन्दगी है। क्यों, है न?
