होली -यादों वाली
होली -यादों वाली
होली आ रही है। रंगों का त्यौहार । चारों ओर खुशियां छायी हैं। रंग, पिचकारी, गुब्बारें और बहुत कुछ । पर मुझे सब से ज्यादा इन्तजार रहता है अनेक प्रकार के व्यंजनों का। वह मालपूये, दहिवड़े आदि आदि। पर इस बार मुझे किसी और चीज़ का भी इंतज़ार है, मेरे भाई का । बोलने के लिए तो वो मेरा चचेरा भाई है पर हम दोनों बहुत करीब हैं । तीन साल हो गयें उसे मिले हुए । पहले हम सब एक साथ रहते थे, पर तीन और आधे साल पहले चाचाजी को अपने नौकरी के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा । भाई का पढ़ाई चल रहा था, तो चाची और वह छः महीनों के लिए यहीं थे । वो आठवीं में थे और मैं सातवीं में । भाई अपनी परीक्षा के बाद विदेश चले जाएंगे ये तय था । तो उस साल की होली हमारे लिए अभी तक की आखरी होली थी एक साथ । जाहिर सी बात है उन्हें भी पता नहीं था कि अगली बार हम तीन साल बाद होली मनाएंगे ।
उस साल वो होली हमारे बजाये अपने दोस्तों के साथ मनाने चले गए वो भी सुबह-सुबह । मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने तय किया कि मैं उनसे बात नहीं करुंगी । ऐसा नहीं था कि मुझे उन्हें उनके दोश्तों के साथ होली मनाने से कोई आपत्ती थी। मुझे बस इतना चाहिए था कि वो पहले होली हमारे साथ मनायें फिर कहीं भी जाए । भाई साहब दोपहर को पूरी तरह से रंग में डूबे हुए वापस आयें । अब जब ये दशा हमारे बड़ों ने देखा फिर क्या था डांट कि लड़ी लग गयी । मुझे बुरा तो लग रहा था पर मजा भी आ रहा था । उन्होंने मेरी तरफ मदद कि नज़रों से देखा तो मैंने भी उन्हें चिडाते हुए अपना मुँह फेर लिया । पर किसी ने उन्हें डाँट से बचा लिया । मैंने मेरी बहन को हमारे बड़ो को समझाते हुए देखा और उसका असर दिख भी रहा था । भाई को जागर नहाने और फिर मंदिर में दिया जलाने को कहा गया । जी उन्को डांट पड़ने की वजह पूजा तक भी नहीं रुकने की थी । मैंने मेरी बहन की ओर देखा जो पहले ही अपने कमरे की और जा चुकी थी । थोड़ी देर बाद भाई तैयार होकर बाहर आये और हम दोनों अपने अपने टसन में चूर ; एक दूसरे से बात नहीं कर रहे थे । बहना ने ये देखकर हमेशा की तरह हमारा झगड़ा सुलझाने की कोशिश की ।
"फिर से बात नहीं कर रहे?" बहना ने पुछा ।
"हाँ तो ये महाशय हमारे साथ पहले होली मनाने की बजाए अपने दोस्तों के साथ मनाने निकल गये ।" मैंने उत्तर दिया।
"मैं न जाने उन्से फिर कब मिलूँगा पता नहीं इसीलिए मैं वहाँ चला गया । हम लोग तो फिर भी मिलेंगे ।" उन्होंने अपने बचाव में कहा ।
"हाँ जैसे कि वो यहाँ से भागे जा रहे हैं न ।" मैंने जवाब दिया । "और मैंने आपको आपके दोस्तों से मिलने से कहा मना किया ।"
भाई ने कुछ नहीं कहा । मेरी बहन हम दोनों की तरफ बारी-बारी से देख रही थी ।
"दीदी आप मुझसे ज्यादा प्यार करती हो या उनसे? आप मुझे उनसे बात करने को नहीं बोलोगी ।" मैंने मुँह सुड़काते हुए कहा ।
"मुझे भी मत बोलना दी इस गुस्सैल से ।" भाई ने भी मेरी ओर होठ बिचकाते हुए कहा ।
"ठीक है मैं कुछ नहीं बोलूंगी पर जब तुम दोनों को बात करनी हो तो मुझे मत बोलना । और हाँ मैं बताना भूल गयी; माँ ने लड्डू ऊपर रख दिये हैं, ताकि तुम दोनों उसे कुछ ही देर में सफा चट्ट न दो ।" कहते हुए दीदी वहाँ से चली गयी ।
हम दोनों एक दूसरे को देखकर अपने-अपने कमरे में चले गये । मैं उपाए ढूंढने लगी कि कैसे उन लड्डूओं तक पहुँचा जाये? मैं रसोई घर गयी और मैंने देखा कि भाई तो वहाँ पहले से ही मौजूद हैं टकटकी लगाये हुए उन लड्डूओं पे । शायद उनको मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया और उन्होंने पलट कर मेरी ओर देखा । मैंने उनसे इशारों में पूछ लिया क्या चल रहा है । उन्होंने मासूमियत भरी निगाहों से मेरी ओर देखा फिर कहा - "सोच ले अगर तुझे भी लड्डू खाने हैं तो मेरी मदद कर, वरना भूल जा इनको ।" उन्होंने शायद मेरा इरादा भाप लिया कि मैं सीधे चाची के पास जाउंगी । उनसे उनको अच्छी खासी डाँट पड़ती ।
मैंने कुछ सोचने का नाटक किया, और झट से हाँ करदी । भाई मुस्कुराये और नज़र रखने को कहा । मैंने वही किया । उधर भाई का हाथ लड्डुओं तक नहीं पहुँच रहा था । मैंने झट से वहाँ रखी कुर्सी को खींचा और भाई तक ले गयी । अब भाई का हाथ लड्डूओं तक पहुंच रहा था । मैं उन्हें देख रही थी । मैं भूल ही गयी की मुझे नज़र रखना है । हमें किसी के आने की आहट सुनाई दी और हम चौकन्ने हो गए । भाई कुर्सी से नीचे उतर चुके थे । तभी हमने दीदी को देखा और वो आँखों से इसारे करते हुए पूछ रही थी कि क्या चल रहा है? हालाँकि उन्हें पता है क्या चल रहा है । उन्होंने ही तो बताया था लड्डूओं के बारे में ।
दीदी हमेशा से ऐसे करती आई हैं । जब भी भाई और मेरा झगड़ा होता, दीदी कुछ न कुछ करके हमें फिर से दोस्त बना ही देती है । वैसे तो दीदी मुझसे चार साल और भाई से तीन साल ही बड़ी हैं, पर ऐसा लगता है जैसे की वह हमसे बीस साल बड़ी हो । हमें दीदी से सीखने की हिदायत दी जाती है । और दें भी क्यों न? दीदी ठहरी शांत स्वभाव और उसूलों वाली, वहीं हम नटखट, नाक में दम करने वाले । हमें दीदी के उसूलों से छूट थी क्यूंकि हम दोनों उनके प्यारे छोटे भाई-बहन हैं । सब हम दोनों की नौटंकी का कमाल है, जब भी हमें लगता कि हमें डाँट पड़ने वाली है, हम मासूम सा सकल बना लेते और उनका दिल पिघल जाता । हालांकि हर बार ये तरकीब काम नहीं करती ।
खैर, दीदी को देखकर चैन मिल गया कि वो आहट हमारे माता-पिता कि नहीं थी ।
"बात चालू हो गई तभी?" दीदी ने मुस्कुराते हुए पुछा । हम ने कुछ नहीं कहा और उत्तर में हम भी मुस्कुरायें ।
"फिर से झगड़ा नहीं करोगे न?"
"नहीं दीदी, पर एक शर्त पर कि भाई पहले हमारे साथ होली खेलेंगे ।" मैंने कहा ।
"ये तो मुझे नहीं पता क्यूकि तुम्हारे भाई बहुत जल्द यहाँ से जा रहे हैं । और अगली होली हमारे साथ मनाएंगे या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा ।" मुझे बहुत दुःख हुआ ये सुनकर, पर मैंने सहमती में सर हिलाया । "अभी तो भाई यहीं हैं न तो खूब मस्ती करो और हाँ झगड़ा मत करना । और एक बात पकडे मत जाना, वरना बहुत डाँट पड़ेगी ।" कहती हुई दीदी वहाँ से चली गयी ।
भाई अपने काम में लग गए और थोड़ी देर बाद हमने खूब लड्डू खायी । न जाने क्यों इन लड्डूओं में एक अलग ही मिठास थी, एक अलग ही खुसबू थी ।
"ध्रुवी! तुम्हारे चाचा चाची आ गए हैं ।" माँ ने कहा और मैं भागी । मन में सवाल था भाई कैसे बात करेंगे । हमारा रिश्ता पहले कि तरह ही है या कुछ बदल गया? इन सारे सवालों के साथ मैं बाहर आ गयी और चाचा-चची को देखा । मैंने उन्हें प्रणाम किया और भाई को ढूंढने लगी ।
"अनीश को ढूँढ रही हो?" चाची ने पूछा । मैंने हाँ में जवाब दिया । पर चाची के अगले शब्द मुझे हक्का-बक्का करने के लिए काफी थी ।
"अनीश नहीं आया । उसे पाठशाला में ही रुकने को कहा गया है ।" मैं निराश हो कर वहाँ से जा ही रही थी कि तभी पीछे से आवाज़ आयी - "क्या बहना अपने भाई को डाँटोगी नहीं?" कहते हुए भाई सामने आये । मुझे बहुत गुस्सा आया पर जैसे ही उनका चेहरा देखा मेरा सारा गुस्सा गायब हो गया और मैंने उन्हें जोर से गले लगा लिया ।
"अरे बस-बस-बस बहना! गंगा-यमुना यहीं बहाना है क्या?" कहते हुए उन्होंने मेरे आँसू पोछे जो मुझे पता ही नहीं था कब बहने लगे थे । हम अंदर गए और खूब बातें की । बाद में मुझे पता चला कि ये भाई के न आने का पूरा नाटक भाई ने ही रचा था । मुझे चिढ़ाने के लिए । भाई नहीं बदले सिवाय इसके कि अब वो ज्यादा लम्बे हो गए हैं । पर शायद मैं बदल गयी हूँ । अब मैं किसी को ज्यादा तंग नहीं करती । पहले के मुताबिक़ मैं ज्यादा शांत हो गयी हूँ । मुझे नहीं पता कि यह बदलाव मेरे उम्र की वजह से है या फिर मेरे बदमाशियां में साथ देने वाले के न होने से है? जो भी हो पर मैं अब ऐसी ही हूँ।
चाचा-चाची और भाई जा रहे हैं आज । मुझे पता ही नहीं चला की कब होली आयी और निकल गयी । ऐसा लगता है जैसे कि आज ही तो आये हैं वो लोग, पर हकीकत में दस दिन निकल गए । भाई इस बार कहीं नहीं गए पूजा से पहले, हमने खूब मस्ती की । पर आज अलविदा करने का समय आ गया है । मेरा बस चले तो मैं किसी को जाने ही न दूँ, पर क्या कर सकते हैं?
"माँ-माँ चलो होली मनाते हैं । सभी लोग आ गए हैं ।" मेरे चार साल के बेटे ने मुझे आवाज़ लगाते हुए कहा । मैंने मेरी डायरी से अपना ध्यान हटाते हुए अपने बेटे को देखा । वो बहुत खुश था । "माँ मैं बहना को मेरे साथ ले जाऊं?" उसने पुछा ।
"वो बहुत छोटी है बेटा ।" मैंने जवाब दिया । वो उदास सा दिखा पर तुरंत ही मुस्कुराते हुए कहा "जब बहना बड़ी हो जायेगी तो मैं उसे सभी जगह ले जाऊँगा ।"
"अच्छा बेटा! ले जाना । अभी तो देखकर आओ वो सो रही है न । और हाँ वहीं से मत चिल्लाना । "
"ठीक है !" कहते हुए वो चला गया । "माँ सृद्धि सो रही है ।" उसने वहीं से चिल्लाते हुए कहा ।
"हे भगवन ! सो रही 'थी' कहो बेटा अब तो तुमने उसे जगा ही दिया होगा । ये बिलकुल मेरे पर गया है । पता नहीं सृद्धि किस पर जायेगी? अभी तो वो दो साल की है । " मैंने सोचा ।
मैंने फिर से उस डायरी को देखा । उसमे लिखा हर एक चीज़ लगता है जैसे कल ही हुआ हो । बारह साल हो जाए हैं मैंने उस डायरी को लिखे । पंद्रह साल पहले उन लड्डूओं का स्वाद आज भी याद है मुझे । और कैसे याद न रहे उसके बाद मैंने बहुत बार लड्डू खाये हैं, पर उस सा स्वाद नहीं । उन लड्डूओं में एक अलग सा स्वाद था जो उस समय तो मुझे पता था पर अब पता है । वो स्वाद था अपनापन का, उस सच्चे रिश्ते का, उन प्यारे लम्हों का जो अब बहुत मुश्किल से मिलती है ।
शादी से पहले तक तो मिल भी लेते थे, धीरे-धीरे ये सिलसिला कम होते गया । सभी अपने-अपने काम में कुछ ऐसे उलझे कि फिर कभी मुक्त ही न हो पाए । अब तो बस ऐसा लगता है कि काश वो दिन फिर लौट आते । हम फिर वैसे ही रोते और मुस्कुराते । हम फिर उन प्यार भरे सुनहरे लम्हों को जी पाते । पर अब तो बस यादों से ही काम चलता है । कभी उनके पास समय नहीं, तो कभी हमारे पास । पर हर साल होली का बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ कि शायद इस साल हम पूरे परिवार के साथ होली मना सके ।
