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Tk Singh Kashif

Others

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Tk Singh Kashif

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हमारी खोई मां

हमारी खोई मां

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सितम्बर महीने की एक सुबह अपने बनारस के दुर्गाकुंड तिराहे के पास वाली चाय की टपरी पर मैं अपने दोस्तों के साथ दुनिया समाज की बातों का आनन्द लेते हुए चाय की चुस्की लगा रहा था। वहीं कुछ बच्चे कंधों पर बैग टांगे हुए तो कुछ हाथों में किताबें थामे हुए अपने अपने स्कूल कॉलेज की तरफ़ बढ़ रहे थे। शहर का एक हुजूम अपनी अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए अपने घर से निकलकर दूर दराज़ के इलाकों में जा रहा था। हर तरफ़ चहल पहल और शोरग़ुल का माहौल था। समय का सूरज भी आहिस्ता-आहिस्ता परवान चढ़ रहा था। सूरज की वो किरणें जो थोड़ी देर पहले तक गुलाबी मालूम होती थीं अब धीरे धीरे बर्दाश्त के बाहर होने लगी थीं। चाय की दो चुक्कड़ ख़त्म करने के बाद मैं अपने घर को पैदल ही वापस जा रहा था। दुर्गाकुंड से मेरे घर की दूरी ब-मुश्किल से दो से ढाई सौ मीटर की ही होगी। तभी रास्ते से गुज़रते हुए मेरी नज़र एक बूढ़ी महिला पर पड़ी। जो एक बन्द पड़ी जलपान की दुकान की टूटी-फूटी चद्दर की आड़ में बैठी थी। उसके बदन पर कपड़ों के नाम पर एक फटी पुरानी सफ़ेद साड़ी थी। जिसपर मिट्टी की परत जम चुकी थी जो अब बस कहने मात्र को सफ़ेद थी। आस पास इतना सब कुछ होने के बावज़ूद उस महिला पर कोई असर ही नहीं हो रहा था। उसके कानों में जैसे जूं तक नहीं रेंग रही थी और रेंगती भी कैसे। कई दिन हो गए थे उसके हलक से रोटी का एक निवाला भी नहीं उतरा था। ये बात उसकी बेसुध हालत चीख-चीख कर बता रही थी। उसकी निगाहें बार-बार बग़ल की बन्द पड़ी भट्टी में बड़ी उम्मीदों के साथ देख रही थीं। उसका मन भट्टी की बुझी राख को टटोल रहा था कि शायद उसे उसमें से बचा हुआ खाने का कोई टुकड़ा मिल जाए। और वहाँ था भी क्या ढूंढने को। जलपान की उस दुकान को भी बन्द हुए तो महीनों हो गए थे। उसकी हालत ऐसी थी की उसे देखकर मानों मेरा कलेजा धरती की तरह फट गया हो और उसमें हमारी इंसानियत जिसका हम हमेशा से गुणगान करते हैं वो समाहित हो गयी हो। मैं बेहद हतप्रभ था। मेरी आँखें उस दृश्य को देखकर ऐसे फटी जा रही थीं जैसे किसी ने अपने दोनों हाथों से फैलाकर मेरी आँखों की पुतलियों को चौड़ा कर दिया हो.

अपनी नज़रों के सामने ऐसा मंज़र देखकर मैं एक पल को सिहर सा गया था फिर मैंने जैसे-तैसे ख़ुद को संभाला और सड़क किनारे उस बन्द पड़ी जलपान की दुकान की तरफ़ जाने लगा। एक ओर मेरे लड़खड़ाते क़दम उस महिला की तरफ़ बढ़ रहे थे वहीं दूसरी ओर सवालों का तीर मेरा कलेजा पूरे वेग से छलनी किए जा रहा था।

उसमें से दो सवाल मेरी आँखों को अबतक रुआंसी कर चुके थे।कैसे कोई एक बूढ़ी लाचार औरत को यूँ सड़कों पर मरने के लिए छोड़ सकता है। उसका कोई तो होगा इस दुनिया में। उसकी कोई औलाद या दूर के रिश्तेदार। कोई तो होगा ही.....क्यों हमारे बड़े बुज़ुर्ग जिन्होंने हमें इस मुक़ाम तक पहुंचाया वो हमारे लिए अब भार लगने लगे हैं

मैं जैसे-तैसे ख़ुद को पुनः संभालते हुए वहाँ पहुंचा। वो महिला मुझे देखकर काफ़ी भयभीत हो गई और चिल्लाते हुए पास पड़े कंकड़ पत्थरों से मुझपर प्रहार करने लगी। शायद उसको मुझपर भरोसा नहीं था ऐसा लग रहा था उसे मुझसे कोई ख़तरा मालूम हो रहा था। ऐसे लोगों के प्रति आमतौर पर हमारा मानसिक रोगी समाज अच्छा व्यवहार नहीं करता। लग रहा था उसे किसी ने काफ़ी तकलीफ़ दी थी जिसके फलस्वरूप वो मुझपर भी यक़ीन नहीं कर पा रही थी।

मैंने किसी तरह हल्के हाथों से उस महिला का हाथ पकड़ा और उसे प्यार से समझाने का प्रयास करने लगा। कुछ मिनट की जद्दोजहद के बाद वो महिला अब शांत हो चुकी थी। मेरी प्यार भरी बातें सुनकर उसकी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ चुका था जैसे उसे कोई अपना मिल गया हो।

अब उस महिला का असहनीय दर्द मुझसे देखा नहीं जा रहा था।

आप इसे मेरी अच्छाई कहें या ख़राबी लेकिन मैं जब भी किसी ग़रीब। कमज़ोर या असहाय इंसान को देखता हूं तो उसकी उम्र के अनुसार मुझे कोई अपना बेहद क़रीबी याद आ जाता है। उस इंसान की पीड़ा मेरी निजी पीड़ा प्रतीत होने लगती है। मैं अब उस महिला को ऐसे अकेला नहीं छोड़ सकता था इसलिए मैं उसे अपने घर ले आया।

वो महिला काफ़ी दिनों से भूखी होने के कारण बिल्कुल कमज़ोर हो गई थी। मानो हवा के झोंके का भी अब वो सामना करने की स्थिति में नहीं थी। उसके क़दम पूरी तरह से लड़खड़ा रहे थे। रास्ते भर उसे किसी तरह संभालते हुए मैं अपने घर ले आया।घर के बाहरी दरवाज़े के पास पड़ी कुर्सी पर महिला को बिठाते हुए मैंने अपने घर की डोरबेल बजाई तो अन्दर से मेरी पत्नी रूही ने थोड़ा ऊँची आवाज़ में पूछा। कौन है ?

तो मैंने बोला अरे मैं हूँ फिर उसने मेरी आवाज़ सुनकर दरवाज़ा खोला और पूछा ये आपके साथ में कौन है। मैं बोला बताता हूँ ज़रा ठहरो तो सही। पहले एक गिलास ठंडा पानी ले आओ।

मेरी पत्नी रूही का दिल भी मोम के समान कोमल है। मेरी तरह उससे भी किसी की तकलीफ़ देखी नहीं जाती। वो तुरन्त किचन में गयी और पानी के साथ बिस्किट का पैकेट भी खोलकर ले आयी और उस महिला के आगे प्रेम से रख दिया। अपने सामने बिस्किट देखकर महिला ऐसे ख़ुश थी जैसे बंज़र ज़मीन को कुछ बूँद पानी मिल गया हो। उसके चेहरे पर ख़ुशियों की ऐसी चमक दिख रही थी जैसे उसने अरसे बाद किसी खाने की चीज़ को अपने पास देखा हो। भूख के मायने और रोटी की क़ीमत ये दोनों चीज़ें उस महिला ने हमें चंद मिनटों में बता दिया था। उस महिला को ऐसे खाते देखकर हम पति पत्नी भी ख़ुद को भावुक होने से नहीं रोक पाए और एक दूसरे का हाथ पकड़कर ख़ुद को किसी तरह संभाला।

वो महिला उधर बिस्किट का पैकेट ख़त्म कर चुकी थी इधर मैं रूही को सारी बातें बता चुका था। उस महिला की बेबसी की दास्ताँ सुनकर रूही की आँखें एकदम लाल हो चुकी थीं। मानों किसी ने उसकी आँखों में नश्तर चुभा दिया हो।उस महिला को देखकर शायद रूही को अपने माँ की याद आ गयी थी जो कुछ महीने पहले ही हमें छोड़कर हमेशा के लिए जा चुकी थीं।

मैंने रूही से उस महिला को नहलाकर अच्छे से तैयार करने को कहा और वहीं पास के सोफे पर बैठकर उस महिला के नसीब और उसकी क़िस्मत के बारे में सोचने लगा। सोचते-सोचते मैं भी अपनी माँ की यादों में खो गया था। मुझे अब अपनी ख़ुद की ख़बर तक नहीं थी। तभी रूही ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोला- "कहाँ खो गए आप। मैं कबसे आवाज़ दे रही हूँ।"

मैंने झिझकते हुए बोला- "क्कक्ककहीं नहीं।"

वो बस ऐसे ही थोड़ा माँ की याद आ गई। रूही मेरे जज़्बातों को समझ चुकी थी।उसने मेरी तरफ़ सांत्वना भरी नज़रों से देखा और ख़ुद को संभालने का इशारा किया।तभी मेरी नज़र उस महिला पर पड़ी जिसको मेरी पत्नी ने नहलाकर अपनी नीली साड़ी पहनाया था और उस महिला के चेहरे पर अब एक अलग ही ख़ुशी झलक रही थी। मानो उसे अरसे बाद एक नई ज़िंदगी मिल गयी थी। उस महिला के प्रति अपनी पत्नी रूही का प्रेम देखकर मैं उसे अपने गले से लगाए बिना रह नहीं पाया।देखते ही देखते दोपहर का वक़्त हो गया था।

हमारे बेडरूम में लगी अलार्म घड़ी ने 1 बजने का संकेत भी दे दिया था। अब खाने का वक़्त हो चला था। हम तीनों अगल बग़ल-बैठकर एक साथ खाना खाने लगे।

मैंने और रूही ने बारी बारी उस महिला को अपने हाथों से खाना खिलाया। खाना खाने के बाद हम दोनों महिला के पास बैठ गए और उससे बात करने की कोशिश करने लगे। वो महिला भी आहिस्ता-आहिस्ता हमारे सवालों का जवाब देने लगी थी।उस महिला के प्रति हमारे दिलों में प्यार बढ़ता ही जा रहा था। अब तो ऐसा लगने लगा था कि हम उन्हें आज से नहीं सालों से जानते हों। बातों ही बातों में थोड़ी देर बाद हमने उनसे उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम धनवंती बताया।

उन्हें अपने नाम के अलावा और कुछ याद नहीं आ रहा था। जैसे कि उनका घर कहाँ है। वो रहती कहाँ हैं। उनके घर में कौन - कौन है। उनके पास हमारे इन सब सवालों का कोई जवाब नहीं था। उन्हें बस इतना याद था कि उन्हें उनकी नालायक औलादों ने उनके ग़ुस्से और चिड़चिड़ेपन के कारण घर से बाहर निकाल दिया था।वो कहते हैं न कि इंसान सब कुछ भूल सकता है परंतु दो चीज़ें वो कभी नहीं भूलता।

पहली - किसी ने उसके बुरे वक़्त में उसका साथ दिया हो।

दूसरी- किसी ने उसके साथ कभी बहुत बुरा किया हो।

शायद यही वजह थी कि धनवंती जी अपने बच्चों की उन्हें उनके ही घर से बेघर करने की शर्मनाक हरकत आज तक नहीं भुला पायी थीं

धनवंती जी की बातें सुनकर मुझे उनकी औलादों पर बेहद ग़ुस्सा आ रही थी। दिल में नफ़रत की एक आग भड़कने लगी थी जो ऐसी औलादों को जलाकर मार डालना चाहती थी।

धनवंती जी के मना करने के बावजूद मैंने एक दिन अख़बार में उनकी जान-पहचान वालों का पता लगाने के लिए एक इश्तेहार दे दिया। कुछ दिनों के बाद इश्तेहार में दिए गए मेरे नम्बर पर सुबह-सुबह एक अंजान नम्बर से कॉल आया। कॉल मध्यप्रदेश के सतना से एक महिला का था जिसने लड़खड़ाती आवाज़ में बोला - "हेलो। आप टी के जी हैं।"

मैंने कहा "जी, कहिए।"

महिला ने कहा - "आपने अख़बार में धनवंती नामक महिला का एक इश्तेहार दिया था।"

मैंने कहा -" जी हां। पर आप कौन।"

उसने अपना नाम रौशनी बताया और कहा मैं आपके दिए हुए पते पर बहुत जल्द आ रही हूँ आप प्लीज़ तब तक उन्हें अपने घर में रखिएगा। मैंने कहा - आप बेफ़िक्र रहें। वो यहाँ एकदम सुरक्षित हैं।

सवालों के समंदर में गोता लगाते हुए वो दिन तो जैसे तैसे बीत गया। अब बारी रात की थी।

मैंने और रूही ने धनवंती जी के साथ डिनर करते वक़्त महसूस किया कि धनवंती जी अब पहले से थोड़ा बेहतर महसूस कर रही थीं। इस बार तो वो हमें अपने हाथों से खाना भी नहीं खिलाने दे रही थीं। हालाँकि ये हमारा सौभाग्य था कि हम अपनी माँ समान एक महिला की सेवा कर रहे थे। हमें बेहद सुखद अनुभूति की प्राप्ति हो रही थी। सो हम जबर्दस्ती कुछ निवाला उनको अपने हाथों से खिला दिया करते थे। बीच-बीच में अब वो भी हमें निवाले का एकाध टुकड़ा खिला दिया करती थीं। हमारे प्रति उनका प्रेम देखकर हमारी आँखें पुनः भर आयी थीं।

अब सोने का वक़्त हो चला था। हमने धनवंती जी का भी बिस्तर अपने बेडरूम में ही एक बेड पर लगा दिया। उधर मैं और रूही अपने बेड पर सोने की कोशिश करने लगे। बिस्तर पर लेटे हुए मुश्किल से दस मिनट ही हुए थे कि मैंने महसूस किया कि धनवंती जी गहरी नींद में सो गई थीं। उनके इतनी जल्दी सोने का कारण शायद कई दिनों से ठीक से न सो पाना था।

उधर हम दोनों की नींद हमारी आँखों से ऐसे ओझल थी जैसे सियाह रातों में सूरज की किरणें। ऐसा लग रहा था जैसे रात की अवधि दुगुनी हो गयी थी। जैसे हमारे लिए हर एक मिनट को ख़ुदा ने आज रात के लिए एक-एक घण्टे का कर दिया हो। हालाँकि कुछ घण्टों के बाद रूही को भी नींद आ गयी थी।

इधर अकेला मैं रात भर बस करवटें बदल रहा था। मेरा हाथ जिधर भी जाता उधर बिस्तर में बस सिलवटें ही सिलवटें प्रतीत हो रही थीं। जैसे-तैसे मेरी आँख लगी ही थी कि चंद मिनटों बाद ही घर के बाहर से आती कोयल की मधुर आवाज़ मेरे कानों में संगीत का रस घोलने लगी थी। ऐसे में अब नींद कहाँ आने वाली थी।

थोड़ी देर बाद अगले दिन का सूरज भी दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने आ चुका था। धीरे-धीरे सब कुछ थोड़ा सामान्य हो चुका था। आधे से ज़्यादा दिन एक दूसके के साथ प्यार बाँटते हुए निकल गया था।

गोधूलि (शाम और रात के बीच का पहर) का वक़्त था। सूरज बादलों की आग़ोश में चला जा रहा था। हम घर में बैठकर धनवंती जी से बातें कर रहे थे जो अब हमसे काफ़ी घुल-मिल गयी थीं तभी मेरे घर की डोरबेल बजी तो मैंने दरवाज़ा खोला।

सामने एक महिला और एक आदमी खड़े थे। मैंने पूछा। जी आप लोग कौन।

तो महिला ने कहा - मैं रौशनी।

कॉल पर सुबह हमारी बात हुई थी। उसने थोड़ा रुककर मुझसे कहा।

फिर मैंने कहा - जी। आइए।

घर में आते ही रौशनी ने धनवंती जी को माँ - माँ कहकर उन्हें गले से लगा लिया और रोने लगी। वो ग़मगीन दृश्य मेरे मन में फिर से कई सवालों को जन्म दे रहा था कि जिसे लोगों ने सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया था अचानक से उसके प्रति इस औरत के मन में इतनी मोहब्बत कैसे जागृत हो गयी। उधर बग़ल में खड़े आदमी की आँखें भी नम हो गयी थीं।

पता नहीं क्यों रौशनी का धनवंती जी को गले से लगाना मुझे नागवार गुज़र रहा था। मुश्किल से दो मिनट हुए होंगे कि मैंने रौशनी की बाहें पकड़कर उसे धनवंती जी से अलग कर दिया। उधर धनवंती जी भी थोड़ी भावुक हो गयी थीं। मानो उनके ममता की सूखती फ़सल रौशनी के आँसुओं से सिंचित होकर फिर से लहलहा उठी हो।

मैंने रौशनी से बग़ल में खड़े आदमी के बारे में पूछा तो उसने कहा ये मेरे भैया हैं। दीपक। धनवंती जी हमारी माँ हैं। ये सुनकर मुझे उन दोनों पर बहुत ग़ुस्सा आ रही थी। मैं अपना होश खो बैठा था। मैंने रौशनी और दीपक पर सवालों की बारिश शुरू कर दी। मेरे ग़ुस्से का क़द इतना बढ़ चुका था कि वो अब ख़ुद को काफ़ी छोटा महसूस कर रहे थे। उनकी नज़रें ज़मीन में धंसी जा रही थीं।

मैंने रौशनी और दीपक पर चिल्लाते हुए पूछा कि ऐसी कौन सी मज़बूरी थी जो तुम लोगों ने बुढ़ापे में उस माँ को सड़कों पर भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जिसने तुम्हें ज़िंदगी दी। जिनकी वजह से ही आज तुम सब इस मुक़ाम पर हो। तो सहमे हुए आवाज़ में दीपक बोला पापा के गुज़र जाने के बाद माँ के अंदर बहुत चिड़चिड़ापन और ग़ुस्सा आ गया था। हर बात पर हमसे झगड़ा किया करती थीं। इनकी बातें हमें चुभने लगी थीं इसिलिए हमसे ऐसा किया। उसके मुँह से ऐसी घटिया बातें सुनकर मैंने कहा मन कर रहा है कि मैं अभी तुम दोनों का गला घोंट दूँ। तुम जैसों को जीने का कोई अधिकार नहीं। पर मैं तुम्हारे ख़ून से अपना हाथ गन्दा नहीं करना चाहता।

धनवंती जी को मेरा उनके बच्चों पर ग़ुस्सा होना शायद अब देखा नहीं जा रहा था। उन्होंने कहा जाने दो बेटा। शायद मैं ही ग़लत थी। इनकी कोई ग़लती नहीं। धनवंती जी की बातें सुनकर मैं दीपक और रौशनी से बोला। देखा एक ये माँ हैं जिनको तुम लोगों ने मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया था फिर भी तुम्हारे खिलाफ़ कोई एक शब्द भी बोले ये इन्हें पसन्द नहीं और एक तुम लोग हो जिहोंने ऐसी माँ की ज़िंदगी को अंधकार में ढ़केल दिया। क्या इसी दिन के लिए इन्होंने तुम दोनों का लालन-पालन किया था।

तुम्हें इनका इलाज़ कराना चाहिए था। इनके साथ प्यार से बातें करनी चाहिए थी। कभी-कभी हमारी समस्याएं इतनी बड़ी नहीं होतीं जितनी हम उन्हें समझ लेते हैं। अगर तुम सब इनके साथ प्यार से रहे होते। बातें किए होते तो शायद ये भी पहले की तरह ठीक हो गयी होतीं। पर तुम लोगों के पास शायद इनके लिए वक़्त ही नहीं था। अकेलापन इंसान को ऐसे खा जाता है जैसे किसी लकड़ी को दीमक ।

मेरे इतना कहते ही रौशनी और दीपक मेरे और अपनी माँ के पैर पकड़ कर रोने लगे। उन दोनों की हालत अब धनवंती जी से देखी नहीं जा रही थी। सो उनके कहने पर मैंने भी उन्हें माफ़ कर दिया। परन्तु रौशनी और दीपक के लाख कहने के बावजूद मैंने उन्हें धनवंती जी को अपने साथ ले जाने से साफ़ इंकार कर दिया। मन तो कर रहा था कि कभी उन्हें अब धनवंती जी से मिलने ही न दूँ। पर एक माँ को उनके बेटों से दूर करना अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए मैंने कभी - कभी आकर उन्हें धनवंती जी से मिलने की अनुमति दे दी।

इस घटना के कुछ ही दिन बाद हमनें एक अच्छे से हॉस्पिटल में उनके दिमाग़ का इलाज कराया और अपनी माँ की तरह मैं और मेरी पत्नी रूही ने उनकी देखभाल की। लगभग सात महीने के इलाज के बाद उनके दिमाग़ की जाँच की सभी रिपोर्ट्स नॉर्मल आयी। हम अब बहुत ख़ुश हैं। हम तीनों लोग एक घर में बड़े प्यार से रहते हैं। हम ख़ुदा के भी बहुत शुक्रगुज़ार हैं जिसने एक बार फिर हमारी खोयी माँ हमें वापस दे दिया ।


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