Swati E0647

Others

4.0  

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गिनती

गिनती

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स्मार्टफोन की दूसरी तरफ से एक आवाज आई जिसमें नसीहत थी वक्त पर दवाई मंगा लेने की। दवाई जो राशन से पहले खत्म हो जाया करती है, जो राशन से ज्यादा मंगाई जाती है, जो प्रौढ़ता की अकेली बैसाखी होती है, दर्द के शहरों में तर्क का महल होती है, दवाई जो सिर्फ शरीर के लिए होती है हालातों पर काम नहीं करती। ऑर्डर करो तो आने में दो हफ्ते भर लगा देती है। अपनी बेटी निधि से होने वाली रोजमर्रा की सूखी बातचीत राकेश ने "ध्यान रखना" कह कर खत्म कर दी। फोन को कहीं टेबल पर छोड़ दिया। बेंच पर सदियों से मूर्ति की तरह स्थापित कागज और कलम उसे दिख रहे थे। कुछ कागज फटे थे, कुछ कुचले हुए थे, कुछ पर स्याही से अजीबो गरीब चेहरे बन रहे थे, कुछ पर हस्ताक्षर ही हस्ताक्षर थे, शायद दिमाग को चलाने की कोशिश थी और कुछ पर शब्दों का एक झुंड जिसका शायद ही कुछ मतलब निकल पाता।

 खयालों को समेटते पैरों को राकेश बालकनी तक लेता गया और अपार्टमेंट के सामने वाले पार्क को ठहरी नज़रों से घूरने लगा। उस पार्क में कभी बच्चे हुआ करते थे, कूदते थे, चिल्लाते थे। और आज कोई नहीं था घास कुचलने को, वो बेसहारा सी सूख रही थी। नजर फेरी, सामने के अपार्टमेंट्स में भी लोग बालकनी में बैठे थे। जरा ऊपर उठाई तो हवा नीली लग रही थी, धूप तीखी लग रही थी। सब कुछ खाली था पर वह खालीपन चुभ रहा था, मानो जैसे कोई गुब्बारा और सूई ठहरे हो एक छत में। मन की सुई जब वक्त की सुई से जीतने लगी तो वह फिर आ बैठा कंप्यूटर पर।

सर्च बार खोला गया जिसके नीचे कुछ समाचार थे, कुछ डाटा थे। सब समाचार अलग, विषय एक, महामारी। कुछ दिन पहले की ही बात रही होगी कि बॉस ने फोन करके कह दिया इस शनिवार तक एक आर्टिकल मिल जाना चाहिए। संडे की गर्म चाय के साथ जो ज्यादा कड़वा ना लगे। टाइटल था" लॉकडॉन एंड लाइफ"। कुछ उपाय बताने थे उसमें, कुछ दिल को सुकून देने वाली कहानियां, पंखों की बात करनी थी, आसमानों की बात करनी थी,चारदीवारी में कैसे परिवार के साथ खुश रहा जाता है ये सिखाना था, ह्यूमन टच की बात करनी थी, वर्चुअल वर्ल्ड की बात करनी थी, दोनों की बात करनी थी पर मौत की नहीं, डाटा की नहीं। बात करनी थी सकारात्मकता की नकारात्मक वक्त में। नाकाम कोशिशों ही में उसने कुछ शब्द टाइप किए और आर्टिकल्स ढूंढने लगा। किसी में स्किन केयर था, किसी में फैमिली टाइम, किसी में कुकिंग शो, किसी में एक्सरसाइज। वही पुरानी बातें जो कोई भी घर बैठे सोच सकता था,जो शायद लोग घर बैठे सोच भी रहे थे। पर राकेश कुछ और सोच रहा था।

सफेद स्क्रीन और काली आंखों में जितने विरोधाभासी संसार पल सकते थे, पल रहे थे। दोनो ही में ध्यान से देखो तो परछाई थी दूसरे की।दोनों में सच के ही अलग रूप थे और सच कभी एक रंग का नहीं होता। कंकालों का संसार आंख में लिए, नीली हवा को सोखते हुए, नाखूनों पर से खाल उखड़ रही थी जिन हाथों की, उन्हीं में उसने स्मार्टफोन फिर से उठा लिया। उसकी स्क्रीन पर धूल थी,बैटरी कुछ लो थी, लगा जैसे अरसों हो गए हो उसे भी इंसान का स्पर्श किए।

कॉल हिस्ट्री में सबसे ऊपर बॉस का नंबर था, उसी ओर अंगूठा बढ़ने लगा। आज राकेश साफ बोल देगा कि उससे नहीं होगा, कि उसको अच्छी कहानियां झूठी लगती हैं, कि किसी को ऐसी टिप्स की जरूरत नहीं, जिसे है उससे पढ़ी नही जाएंगी कभी, कि वो किसी और को ढूंढ लें। इतने में ऊपर एक नोटिफिकेशन आया, आदतन मजबूर उंगली बढ़ गई ऊपर जहां इनबॉक्स में बहुत मैसेज थे पर विषय एक। बिल, कोई बिजली का, कोई पानी का, कोई टीवी का जिसे अब कोई देखता भी नहीं था, पर सबको चुकाया जाना था। भरी दोपहरी में जलता बल्ब, ठंडा धूमिल मक्खियों से भरा कॉफी का मग,प्रिंटर की हरी जलती बुझती लाइट और कंप्यूटर की आंखें चीरती सफेद स्क्रीन शांत कमरे में राकेश को देख रहे थे। ना पुतलियां हिलती, ना ही गर्दन फिर भी वो ये सब देख रहा था, पूरा कमरा देख रहा था और इससे पहले की कोई कोशिश होती वो कल देखने लगा,बीता हुआ कल।एक शक्ल थी उस कल में बहुत सूखी सी, मानो खाल छोड़ने को तैयार हो कंकाल को ; रोते चेहरे थे, एक झलक में समा जाएं -गिन लिए जाएं बस उतने ही और सफेद फूल थे बिल्कुल ताजे, खिलखिलाते अभी अभी बगिया से लाए गए थे और एक ....एक खट खट

एक खट खट हुई दरवाजे पर, राकेश ने फिर से वर्तमान को अतीत से अलग करने की एक काबिले तारीफ कोशिश की और वो जीत गया। दरवाजे की तरफ बढ़ा तो याद आया और एक मास्क उठा ले चला, सामने दवाई पहुँचाने को डिलाइवरी मैन खड़ा था, एक सिग्नेचर और पैकेट राकेश के हाथ में होगा। कलम लेने जब वो अंदर गया तो दरवाजा बिना सोचे खुला ही छोड़ दिया। बाहर खड़े डिलाइवरीमेन की नजरें भी बिना सोचे सामने खड़ी दीवार पर चली गई। काले सफेद फ्रेम में, एक कलर फोटो, एक लड़की थी, कानों के दो अंत तक खींचती हंसी थी जिसकी और नीचे कुछ सफेद फूल अब सूख चुके थे।राकेश वापिस आया और हस्ताक्षर करने लगा। खुद को रोकते रोकते उस लड़के ने पूछ ही लिया फोटो में हंसती लड़की का हाल। मास्क को संभालते, वायरस से ज्यादा शायद सुई गुब्बारे को छू जाने का डर था जिसे, राकेश बोला "हजारों के डाटा में नाम कहां आता है। मेरी बेटी है, निधि " और लौटते फिर उसी डेस्क पर दवाइयां रख दी। कमरे में कंप्यूटर की सफेद रोशनी बुझने लगी, कोरे कुचले कागज बहुत आराम से पैकेट का बोझ उठाने लगे, कॉफ़ी में अब मक्खियां बढ़ी सी थी शायद, और गिनती कोई रख नहीं रहा था।


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