गौर फरमाइए!!
गौर फरमाइए!!
अभी हाल ही में कुछ दिनो पहले कहीं जाते हुए मैं एक विश्वविद्यालय के पास से गुज़री। उस विश्वविद्यालय की भव्य इमारत किसी क़िले से कम नहीं थी।सलेटी और सफेद पत्थरों से बनी वो इमारत और उसके बीच से झाँकता अँग्रेज़ी में स्वर्ण अक्षरों से लिखा उसका नाम अलग ही शोभा बड़ा रहा था। अपनी आँखो को पर्याप्त संतुष्टि देने के बाद जब मैने नीचे देखा तो मेरा ध्यान कोने में बैठी एक बूढ़ी महिला पर पड़ा। उसकी दयनीय स्थिति और उदास आँखें कुछ कह रही थी। मैने इधर-उधर देखा लेकिन कोई उसके साथ न दिखा तब मैं उसके पास गयी..
थोड़ी देर वहाँ खड़े रहने के बाद मैने उनसे पूछा,’ महोदया! क्या मैं आपकी कुछ सहायता कर सकती हूँ। उसने मेरी तरफ़ देखा फिर मुँह फेर लिया। मैंने फिर पूछा क्या आपको कुछ चाहिए? तब उसने अपनी कांपती आवाज़ मे कहा,’ “सम्मान” सम्मान चाहिए मुझे और मुझसे जुड़े लोगो को! फिर निराशा भरी आवाज़ में बोलीं,”मैं हिन्दी हूँ”। मैं अवाक होकर उसकी तरफ़ देखती रह गयी। फिर मैने कहा, ‘आप तो राष्ट्र भाषा हैं। आप इस हालत में कैसे?’
उसने निराशा से जवाब दिया, ‘इसके ज़िम्मेदार तुम लोग ही हो। वास्तव में तुम सब। आज हर जगह बस अँग्रेज़ी भाषा ही सुनाई देती है। टी.वी. से लेकर रेडियो तक, अख़बारों से पत्रिकाओं तक, विद्यालय हो या विश्वविद्यालय बस लोग अँग्रेज़ी भाषा ही बोलना चाहते हैं। चलो ये भी स्वीकार किया लेकिन वो लोग जो मुझे प्रेम करते हैं और मुझसे जुड़े रहना चाहते हैं उनका जगह-जगह अपमान किया जाता है। सम्मान देना तो दूर बस अपमान ही नज़र आता है चारों तरह।" अब उसकी आवाज़ में एक आक्रोश था। मैं ग्लानि से भरी उसकी बातें सुन रही थी और इतना साहस भी ना जुटा पाई कि उसे दिलासे के दो शब्द कह सकूँ …
