एक आदत,एक त्योहार,एक सपना
एक आदत,एक त्योहार,एक सपना
कंचन, हर शाम को समुंदर के किनारे अपने मां बाबा के साथ जाया करती थी, घूमने के लिए।
उसे वहां की हवा और रामधारी चाचू की लारी से भेलपुरी खाना बहुत पसंद था। चाचू को तो आदत हो गई थी मानो, वो हर रोज कंचन को एक प्लेट मुफ्त में खिलाते थे, और वो मुस्कुराते मुस्कुराते खाती थी। हवा, मौजे, लहरे, मिट्टी की खुशबू, और भेल पूरी के मसालों का चट पटा स्वाद, यह सब उसे बहुत पसंद था।
आदत थी उसकी पुरानी सी, इसलिए तो वो आज फिर से दस साल बाद उसी समुंदर किनारे गई थी। पर अब ना तो, मां थी, ना बाबा, नाही चाचू, और ना वो पांच या सात साल की कंचन। अब कंचन शहर में रहती थी। बड़े बड़े चश्मे लगाती थी, पतली हो गई थी बहुत ज्यादा, और मुस्कुराने से पहले दस बार सोचती थी की लोग क्या कहेंगे।
पर आज वो गणेश चतुर्थी में अपने गांव आई थी। बाबा के बहुत पुराने दोस्त की बेटी, जो बचपन में उसकी दोस्त थी, उसकी शादी थी, उसी में उससे मिलने आई थी वो।
समुंदर का किनारा, कई सारी यादें समेटा हुआ था खुद में, महज आठ साल की थी कंचन, और हर शाम की तरह उस शाम को भी अपने बाबा का इंतज़ार कर रही थी, मगर बाबा, मछली पकड़ कर लौटे ही नहीं। उन्होंने, फिर कभी घर का दरवाजा खट खटाया ही नहीं और कभी छिप कर चाचू को भेल के पैसे देकर उसे यह नहीं कहा की " मुफ्त में दिया है चाचू ने, मजे से खा।"
फिर क्या था, मां ने बहुत मेहनत की, उन्हें भूलने के लिए और कंचन को पढ़ाने के लिए। मगर, पहले काम में वो सफल ना हो पाए, पांच साल बाद, वो रात को सोई और सुबह उठी ही नहीं। गांव के अस्पताल में डॉक्टर ने कहा की दिल का दौरा आया है। तब क्या था, मां बाबा का सपना पूरा करने, कंचन एक एनजीओ की मदद से शहर पहुंची, और पढ़ाई लिखाई कर एक सरकारी स्कूल में टीचर थी वो।
पर आज, समुंदर, कुछ और ही धुन गा रहा था। गांव में, गणेश चतुर्थी की आरती शुरू हुई थी। लहरे भी मानो उछल उछल कर ताली बजा रही हो, आरती की धुन में। और आसमान में शाम का सुरज,मानो ईश्वर की आराधना में जलाया गया दीपक हो। उर रही चिड़िया, जो अपने घर जा रही हैं, वो तो मानो, अगरबत्ती की तरह लग रही थी। कई सारे बच्चे थे आज किनारे पर, वैसे ही बेफिक्र मुस्कुरा रहे थे, जैसे कंचन मुस्कुराती थी।
कंचन ने वही किया जो वो बचपन में करती थी, अपनी उंगलियों से गणेश जी की तस्वीर फेर दी। बचपन में बाबा कई तस्वीरें रेत पर फेरने सिखाते थे उसे, आज उसने फिर से वही किया।
"शायद इसलिए ही गणेश जी को विघ्न हरता कहते हैं?"
ना जाने क्यों, उस तस्वीर को बना कर, कंचन को कई सवालों के जवाब मिल गए। और वो यह बोल गई।
उसे इस दुनिया में अकेले रह जाने का डर था हमेशा से, जो सच भी था। कोई नहीं था ना उसके साथ।
मगर उसका नाम, जो बाबा ने रखा था, समुंदर के कंचन मोती से ही तो प्रेरित था। वही समुंदर, जहां बाबा जाते थे। उसका टीचर बनना, उसकी मां का सपना था, उसी सपने ने तो जिंदगी को आसान बनाया था। मिट्टी पर फेरी गई, यह तस्वीर, कह रही थी जैसे की
इसी गांव में एक स्कूल हो यह तुम्हारे बाबा का सपना था, यहां पर क्यों नहीं आती हो पढ़ाने? हर शाम को इस समुंदर के किनारे बैठ कर तस्वीरें फेर सकती हो, बिलकुल बचपन की आदत की तरह। कोई अकेले रहने का मलाल भी न होगा, यहां तो तुम्हारे कितने सारे दोस्त हैं।
आज, पंद्रह साल हो गए हैं। कंचन अपनी बेटी, सांझ के साथ भेल पूरी खा रही है। लहरे फिर से तेज हुई ही है, और सांझ घबरा कर कहती है
"मां, महल फिर टूट जायेगा!"
"तभी तो कहती हूं, की नाना जी की बात मानती, तो तस्वीरें बनाती, वो मिट जाए तो जल्दी बन जाते हैं। पर नहीं, तुझे तो, रेत का महल पसंद है।"
तभी, पीछे से रवी आता है, कहता है,"मां बेटी घर चलेंगी, खाने की नहीं? स्कूल से आई नहीं दोनों की चली गई ढलता सूरज देखने।"
"हां बाबा, आते हैं, कल मां स्कूल में टेस्ट भी लेंगी, पढ़ना होगा, वरना चिल्लाएंगी।"
कंचन हंस पड़ी, बिलकुल पांच साल की कंचन की तरह।
