दुनिया की तमाम औरतें
दुनिया की तमाम औरतें
दुनिया की तमाम औरतें....
जाने कैसे खो जाती हैं
दीवारों ,दरवाजों और बन्द खिड़कियों के पीछे?
मिलती भी हैं तो किरचों किरचों में
न जाने कितने हिस्सों में तकसीम हुई।
दालों,मसालों,बड़ी,पापड़ के डिब्बों में
कहीं थोड़ी सी बच जाती हैं।
रुककर रह जाती हैं पलकों के पीछे थोड़ी सी
कुछ जिद्दी नदी पर बांध जैसी
या कभी प्याज काटते काटते
आंखों से पानी बनकर बह जाती हैं।
मौसमों के गुजरने के निशां की तरह
कहीं ठहर जाती हैं मातम के दस्तूर निभाते।
खामोशी से सुखा देती है चिर प्रतीक्षारत ख्वाहिशें
अचार के मर्तबानों को धूप दिखाते दिखाते।
रह जाते हैं जाने कितने ख्वाब
धागों की रंगीन रीलों में उलझकर।
या कहीं सलाइयों पर गिनते फंदों में फंसकर।
कुछ बची रह जाती हैं रात के सन्नाटे में
चादर की सिलवटों में सिमट कर।
कही... थोड़ी सी... रिश्तों के भारी गठरी के नीचे
कर्तव्यों, जिम्मेदारियों ,सरोकारों में बंटकर।
गुलाब,जीनिया,रजनीगंधा के बीच खरपतवार की तरह।
टैरस पर सजे गमलों में बची रह जाती हैं।
या अलमारी में कपड़ों में दबी डायरी के पन्नों में
अधूरी कविता या कहानी की तरह मिल जाती हैं।
वो जान ही नही पातीं या
जान कर भी अनजान बन जाती हैं।
अगर ढूंढना मुझे भी मेरे बाद....
तो मैं भी इन्ही पतों पर मिलूंगी थोड़ा थोड़ा।
अगर कुछ टुकड़े न बरामद हों तो समझ लेना
कि कहीं खुलकर जी आयी मैं
कुछ लम्हे चुपके से
खुद की ही ज़िन्दगी के
खुद की ही मर्ज़ी से।
या खिलखिलाकर आयी कहीं एकांत ...बियाबान में।
अगरचे कुछ पन्ने मेरी डायरी में भी मिल जाएं
अधूरी कविता या कहानियों के
तो मत करना पूरी उन्हें।
थोड़ी कसक और छोड़ देना मेरे हिस्से में
कसक...फिर कभी कुछ अधूरा न छोड़ने की ।
