चोर की साधुता
चोर की साधुता
एक चोर था एक नगर में। बड़ा चोर था, बड़ी उसकी ख्याति थी चोरी में। वह एक दफा एक साधु के दर्शन को गया। उसने देखा, साधु के पास लोग बहुत रुपये भेंट कर जाते हैं। सांझ तक देखता रहा बैठ कर। अनेक लोग आए, अनेक बहुमूल्य चीजें भेंट कर गए। उसने सोचाः यह बड़ा पागलपन है, हम चोरी करते हैं, रात-दिन श्रम करते हैं, ऐसा श्रम करते हैं जिसको कोई आदर नहीं देता, खतरा हमेशा पकड़े जाने का, इससे तो साधु बन जाना बेहतर है। यहां लोग धन लाते हैं, वहां हमें लेने जाने पड़ता है। लोग भी कैसे पागल हैं। हम लेने जाते हैं तो उपद्रव करते हैं, यहां खुद ही दे जाते हैं। उसने कहा, धन ही चाहना है तो चोर से साधु बन जाना बेहतर है। उसने साधु के सारे ढंग देखे, उसने सब देख लिया दो-चार दिन में हिसाब कि साधु के ढंग क्या हैं, कैसे वस्त्र पहनता, कैसे धूनी लगाता, कैसा क्या करता है, वह सब उसने देखा और वहां से राजधानी चला गया। उसने कहा, छोटे गांव में क्या बैठना, जब साधु ही बनना है तो राजधानी में बन जाएंगे। इसलिए इस वक्त भी हमारे मुल्क के सारे साधुओं का रुख राजधानी की तरफ है, सारे साधु राजधानी की तरफ जाते हैं। छोटे गांव में क्या साधु बनना, उसने सोचा। वह राजधानी में जाकर बैठ गया। और वह तो सब देख कर आया था। उतना अच्छा साधु भी नहीं कर सकता, वह सब सीख कर आया था। उसका काम तो बहुत ही व्यवस्थित था। उसमें तो भूल-चूक खोजनी कठिन थी। सब गणित से हिसाब लगाया था। होशियार तो आदमी था ही, चोरी में निष्णात था, साधुता में भी निष्णात हो गया। लोग, बड़े-बड़े लोग आने लगे। अदभुत था। उसने देख लिया, साधु, रुपया आता है लात मार देता है। साधु लात नहीं मारता था, वह उठा कर आग में डालने लगा। लोगों ने कहाः अदभुत त्यागी है। पैसे की तरफ आंख फेर लेता था। जितनी आंख फेरने लगा, उतना रुपया आने लगा; जितना लात मारने लगा, उतनी धन-संपत्ति दौड़ने लगे। जितना लोगों से कहने लगा, मेरे पैर मत छूओ, उतने लोग पैरों पर गिरने लगे। सारी राजधानी चकित। और साधु की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी।
पहले ही दिन जब उसकी प्रतिष्ठा का पूरा का पूरा प्रभाव फैला और हजारों-लाखों रुपये उसके चरणों में चढ़े। रात वह सोचने लगा, इन्हें लेकर भाग जाऊं; लेकिन उसे ख्याल आया, लेकिन उसे ख्याल आया, एक नकली साधु को इतना मिलता है, तो असली को कितना मिलता होगा? दूसरे दिन सुबह उसने सच में ही रुपये आग में डाल दिए। दूसरे दिन सुबह उसने सच में ही रुपये आग में डाल दिए। नकली ही सब किया था। लेकिन ख्याल यह आया कि नकली को इतना मिल सकता है, तो असली को कितना मिलता होगा? एक दिशा में झूठा ही उन्मुख हुआ था। पवित्रता की दिशा में झूठा ही उन्मुख हुआ था। लेकिन आंख उस तरफ गई, तो पवित्रता ने पकड़ लिया। साधुता पर भाव गया, तो साधुता ने पकड़ लिया। असाधुता बड़ी कमजोर है, पाप बहुत कमजोर है, असत्य बहुत कमजोर है। आंख भर चली जाए सत्य की तरफ, प्रभु की तरफ, तो पकड़ लेता है।
