चाचा
चाचा
"हें मुन्नी, तारातारी पहुँचा दूँगा" - टूटी-फूटी हिंदी में उसने रेशम से कहा। "हाँ चाचा जल्दी करो" - रेशम कुछ परेशान होकर बोली। रात के ग्यारह बज रहे थे, कलकत्ता की सड़कें बिन मौसम बरसात के पानी से लबालब भरी पड़ी थी। रेशम का घर आ गया, उसने कुछ दस रुपए निकाल कर चाचा को दिए और अंदर चली गई। आधे घंटे बाद अपने कमरे की बालकनी से देखा तो चाचा इतने बारिश में सड़क पर जमे पानी में कुछ ढूंढ रहे थे। रेशम से रहा ना गया और नीचे चली आई। पूछने पर चाचा ने कहा - "मुन्नी तुमी आमाके दस रुपया दिया ना, वह पानी में गिर गया, वही ढूंढ रहा हूँ"। रेशम की हँसी छूट गई, मन ही मन उसे चाचा पागल लगने लगे, लगे भी क्यों ना,भला इतनी बारिश में कोई दस रुपए के लिए भीगता है क्या! चाचा की आँखों से आँसू छलक आए - "कल होली है ना, आज सुबह से कमाई नहीं हुई थी, बस ये दस रुपए थे मेरे पास, हमारा पुचकी बोला - बाबा रंग लाना, पर अब कैसे किनबो रंग। आज के जमाने में हाथ रिक्शा को कौन पूछता है!" - रेशम की आँखें नम हो गई, उसने दो सौ रुपए लाकर चाचा को दिए। आज तीन महीने बाद भी रेशम चाचा के रिक्शे से आया जाया करती है, और चाचा अपनी प्यारी गुड़िया से किराया नहीं लेते।।