भरवे करेले
भरवे करेले
बात उस वक़्त की है जब मैं 7वीं या 8वी क्लास में पढ़ती थी। मैं भी उन औसत बच्चों की श्रेणी में ही आती थी जिनका पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता था। पिता जी भी उसी स्कूल में कला शिक्षक थे। इसलिए थोड़ा सा था के अन्य शिक्षक मेरी शिकायत पिता जी से ना कर दें इसलिए मैं थोड़ा बहुत पढ़ लिया करती थी। वो डर आज भी मेरे अंदर उतना ही गहरा है जितना पहले हुआ करता था। आज कुछ महीनों बाद माँ गाँव से वापिस लौटी थी। पिता जी की एक सहशिक्षिका ने उनसे निवेदन किया कि भाभी जी के हाथों से भरवे करेले तो खिला दीजिये। पिता जी ने ये बात माँ को बताई। मेरी माँ जिनका शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत होता है, सुबह करीब 5 बजे उठ गई थी। मेरी आँख भी खुल ही चुकी थी। चूंकि मैं घर की सबसे छोटी थी और माँ इतने दिनों बाद आई थी तो सोचा जब माँ कहेगी तभी उठूंगी। जब उठी तो देखा जैसे बाहर अंधेरा छाया हुआ हो। काले बादलों ने आसमान को चारों तरफ से घेर लिया था।
मेरे पिता जी की कहीं पर या किसी भी काम को वक़्त आने से पहले करने की आदत है और हम सभी घर के सदस्य उनकी इस आदत से परेशान थे। हो भी क्यों ना क्योंके अगर ट्रेन रात के 10 बजे भी है तो हमें स्टेशन 8 बजे तक पहुंचना पड़ता था। ऐसी है हमारे पिता जी की वक़्त की पाबंदी की मिसाल। चलिए छोड़िये, मुद्दे की बात पर आते हैं। उस दिन पिता जी 7:30 बजे ही घर से निकल गए यह कह कर के अभी बारिश नहीं हो रही है। भरवे करेले पूजा के हाथों दे देना वो मुझे स्कूल में दे देगी। और हम ठहरे लेट-लतीफ! हमने भी जैसे तैसे करके अपना स्कूल बस्ता तैयार किया। फिर माँ ने दो लोगों के हिसाब से 4-5 रोटियाँ घी लगाकर और कुछ भरवे करेले स्कूल बैग में डाल दिये।
इधर मैं पहले ही स्कूल के लिए लेट हो रही थी के बादलों ने भी उसी समय घड़ी की सुइयों का साथ देना शुरू कर दिया और बूंदा बांदी शुरू हो गयी। जैसे तैसे भागते हुए मैं स्कूल से बस कुछ कदमों की ही दूरी पर थी कि वो जो टिफ़िन माँ ने पिता जी की सहशिक्षिका के लिए तैयार किया था एका एक रास्ते पर गिर गया। एक रोटी, जहाँ तक मुझे याद है, हल्की सी रेत लग गयी होगी और स्टील का टिफ़िन था उसमें भी एक तरफ रेत के कुछ कण लग गए। मैंने उस रोटी को उठाया और टिफ़िन में डाला और बॉक्स बन्द कर दिया। यह सोचते सोचते पिता जी को टिफ़िन ऐसे पहुंचाया जैसे कुछ हुआ ही ना हो। स्कूल का पूरा दिन बीत गया।
माँ बहुत दिन बाद घर आई थीं तो पापा के साथ कुछ वक्त और गाँव की बातें बताने में मशरूफ थे। इधर मैं पूरा दिन सोचती रही की सहशिक्षिका मेरी माँ के बारे में क्या सोच रही होगी कि एक शिक्षक के घर में साफ सफाई से खाना भी नहीं बनता? पापा को बहुत बुरा भला कहा होगा। उसी दिन शाम को मैंने माँ से पूछा "मम्मी, पापा की सहशिक्षिका ने बताया नहीं के भरवे करेले कैसे थे?" तो माँ ने कहा के अगर वो मुझे पहले ही बता देती के उसका भी आज शुक्रवार का व्रत है तो मैं किसी और दिन भरवे करेले भिजवाती। सुन कर बड़ी राहत मिली। फिर अगले ही क्षण ख्याल आया के क्यों ना पापा से पूछा जाए। हिम्मत जुटाई और पापा से पूछा पापा वो भरवे करेले आपने सारे खा लिए क्या? पापा ने कहा हाँ वो तो मैंने ही सारे खाये। कुछ हिम्मत हुई तो पूछा के आपको उसमें कुछ मिट्टी जैसा नहीं लगा। पिता जी ने कहा के मुझे तो कुछ महसूस ना हुआ। मैं बैठे बैठे हंसते हुए सोचने लगी के अगर उस दिन शुक्रवार ना होता तो पता नहीं क्या होता।