बचपन
बचपन
वो मस्ती वो नादानी, सुबह की स्कूल से लेकर रातमैंतकीए की लड़ाई।कुछ अनकही यादों के बीच दबे कुछ नन्हे से हसीन पल भी शामिल थे इस थोड़ा और मजेदार बनाने के लिए। ..
वो पहली बार पहने यूनिफॉर्म तो आइनेमैंबार बार देखते रहना और पॉकेटमैंहाथ डालकर स्टाइल मारना, मां कितना भी डांट ले उसे न निकालने के बहाने घर से भाग जाना और मां को भी पीछे भगाना।ये बचपन की शैतानी आज भी मेरे गुल्लक मै कैद है।
तपती धूप में हम बाहर न जा पाते, डांट के मां अपनी बाहों में सुलाती। हम फिर भी बिल्ली पांव निकल जाते घर की छांव से दूर... वो इमली का पेड़ और चड्डी वाले दोस्त, कभी बेट बॉल या गिल्ली डंडा, तो कभी पकड़म पकड़ाई, नजाने खेलते खेलते कितनी दफा गिरते संभलते हुए जिया है बचपन। और लौटते वक़्त? वो खिड़की से झांकती नजरें दबी आवाज़ में कहती, किसके बच्चे हो? लगता है आज इनकी मां इनको कपड़े की तरह धोएगी... । साला ये सुनते ही दिमाग की बत्ती ज़रा धीरे से जलती और एक नजर गौर से बाजूवाले पर पड़ती, और जरा चौंक के मैं ये कहती, मां पहचान तो लेगी ना ?? वो मिट्टी से लदे कपड़े और बिखरे बाल , वो गिरते हुए लगी खरोचें और पैर बेहाल ... ये गांव का माहौल और गली के कुत्ते, हमें देख के डराने से ज्यादा खुद ही डरते थे हमारा हाल देख कर। खैर, बिल्ली की चाल सी हमारी वापसी और मां की हथेली देख घबराती पलकें, वो डरा, सहमा हनुमान सा फूला चहरा और दातों के बीच दबी उंगली। ये इमोशनल चहरा देख मां की सख्त डांट, फिर बाल्टी भर पानी से दोबारा धुलाई, और फिर दूसरे दिन कोई नया जुगाड़।
दोपहर की धूप और स्कूल से वेकेशन का लुफ्त, पापा की वो ४० इंच की साइकिल पर ढाई इंच के पैर रख जब हम निकल पड़ते थे खुली सड़कों पे अपने हौसले आजमाने तो लगता था,साइकिल की सीट मानो थर्ड फ्लोर हो बिल्डिंग का, बैठ कर उसपर लगता मै पायलट प्लेन की। कुछ ही पल मै पेडल रूठ जाता था। पैरों से उसका कनेक्शन टूट जाता था। इतने में मां अवनी से चुम्मा मिल जाता था। साइकिल को भी उसकीका नज़र लग जाती थी। ये मां धरती, न रूठती न उठने देती , चाहे कितना भी ज़ोर लगाए मेरा ढाई फीट का शरीर, मै इन दोनों के बीच सैंडविच ही रहती।
और जरा याद करो तो वो कागज़ की नाव? वो कागज़ की नाव में पैर रख डुबाते थे, और असली नाव पर शक हम जताते थे। क्रिकेट के खेल में गालियां हम खाते थे, छक्के से चाची के चश्मे जो फूट जाते थे। वो केले की चॉकलेट पर खूब लड़ते थे और 2 मिनट बाद साथ खेलते थे। स्कूल की ब्रेकमैंमै घर लौट आती थी, पीछे से कजिन्स बैग लेने जाती थी, फिर मा की अब्सेंस मै उल्टा लटकाती थी। उफ्फ ये शैतानी आज भी मेरी उस फटी पुरानी डायरी मै कैद है।
और याद है पटाखे? वो पटाखे जिसे फोड़कर चाची का हाल ही में रंगे मकान का रंग बदल दिया था उस गोबर के छीटें के साथ? और डर के मारे आधा दिन छत पर रखी टंकी के पास खड़े खड़े उनकी गालियां सुनके बिताया था।
वो सर्दी का मौसम और सुबह का स्कूल, वो 3-4 चादर में लिपटे हुए हम और प्यार भरी मां की पुकार, सुबह सुबह सुज्जु(सूरज) दादा जब रोशनी फैलाते थे, बड़े गुस्से में रहते थे हम कि ये क्यूं हमसे जल्दी उठ जाते हैं। वो सुबह सुबह नहाने के डर से स्कूल ना जाने के हजार बहाने और मां की सख्त डांट, अगर इतने से ना उठे तो वो बाल्टी लाती थी डराने के लिए। अब हम नादान को क्या खबर की बाल्टी खाली है , हम झटपट उठ जाते थे डर के मारे ।
और वो सूतरफेनी (बूढ़ी के बाल) वाला याद है? वो सुतरफेनी का रोज़ बेसब्री से इंतजार करते हुए चौके पे लाइन में बैठते थे। और अठन्नी के बदले वो छेद वाली प्लास्टिक की दो गोलियां देते थे जिसके अंदर क्या इनाम है ये देखने के लिए जम हम अपनी एक आंख पे हाथ रख के झांकते थे ,कितने क्यूट लगते होंगे उन छोटे छोटे हाथों से अपनी आंख ढकते हुए। और जबी इनाम के तौर पर दो सूतरफेनी जब ज्यादा मिल जाती थी तो कितना उछल उछल कर खुश हो जाया करते थे।
और वो स्कूल शूज? याद है उसमे पड़े अंगूठे के छेद को उंगली डाल के बड़ा कर दिया करते थे और फिर अंदर से अंगूठा हिला कर मन ही मन खुश हो जाया करते थे ।
और वो बाजू वाली आंटी जबरदस्ती जब सुबह छे बजे उठाया करती थी चाय के लिए दूध लाने को तो कितना गुस्साते थे हम । और आकर जब मां से शिकायत करते थे तो कितने प्यार से वो हमें अपनी गोदी में उल्टा बिठा लिया करती थी ताकि सुबह सुबह नाश्ता बनाते वक़्त चूल्हे से निकलता धुआं हमारी नन्ही सी आंख को ना जलाए और ऊपर से वो अपनी हथेली से मेरा चहरा भी ढंक देती थी और गोदी में ही सुला देती थी ।
और वो शेर की तरह स्टाइल मारते हुए घर से निकलना और वो काले कुत्ते को भौंकते हुए देख बड़ी ही मुश्किल से घर मिलना । कितने मस्त थे ना वो पल?, खैर थोड़ा सा बचपना तो आज भी मुझमें बरकरार है ।
