बाल दिवस
बाल दिवस
१४ नवम्बर चाचा नेहरु का जन्मदिन जो हम बाल दिवस के रूप में मनाते हैं। मुझे तो लगता है इस दिवस के अब कुछ मायने ही नहीं रहे। ना अब वो बच्चे रहे, ना बचपन। खोता बचपन, छिनती मासूमियत! आजकल के बच्चे तो अब बच्चे ही नहीं रहे क्योंकि माँ बाप को मासूम नहीं स्मार्ट बच्चे चाहिए जो हर क्षेत्र में अव्वल रहें। तीन साल के बच्चे का भी टाइम टेबल फ़िक्स है। आजकल के बच्चों के खेल भी indoor हो गए हैं जो वो मोबाइल और प्लेस्टेशन पर खेलते हैं। कार्डबोर्ड पर खेलने वाले गेम लूडो और सांप सीढ़ी भी मोबाइल पर खेलते हैं जो उनको एकाकी जीवन में ढकेल रहा है। घर से बाहर निकल कर खेलने वाले गेम अगर वो खेलते भी हैं तो स्कूल या क्लब में जाकर वो भी प्रतिस्पर्धा के लिए, ना की आनंद के लिए। समूह में खेलने वाले खेल वो खेलते ही नहीं जिससे जीवन में घुलने मिलने की प्रवृति पैदा होती है।
बचपन तो हमारा था, निश्छल, उदंड, बेफिक्र! गली के बच्चों का इकट्ठा हो कर छुपन छुपाई, पकड़न पकड़ाई खेलना व गुड्डे गुड़ियों का ब्याह रचाना, वो बारिश के पानी में कश्ती को तैराना। आज भी जब अपना बचपन याद आता है तो बरबस ही वो गाना याद आ जाता है “बचपन के दिन भी क्या दिन थे, उड़ते फिरते तितली बन के। “
एक उम्र के बाद उस उम्र की बातें उम्र भर याद आती हैं,
पर वह उम्र फिर उम्र भर नहीं आती।
बचपन को बचपन ही रहने दो, बचपन की मासूमियत को क़ैद ना करो, क़ैद करना ही है तो बच्चों के बचपन की उन मासूम हरकत को अपने मोबाइल में क़ैद करो।
बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
