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ऊंचा कद, दुबला पतला शरीर और उसका शांत, निष्कपट और निर्दोष मन हमेशा दिल को छू जाता था। दुनिया की उलझनों से दूर वो सारा दिन रामनाम की माला और हिन्दी और गुजराती की किताबें पढकर बिताती थी। रिश्ते में भले ही दादी माँ थी पर घर में हर कोई उसे नन्हे बच्चे की तरह प्यार करता था। खाना बनते ही सबसे पहले दादी माँ को दिया जाता था और हम दोनों छोटे छोटे कुरकुरे माँ से चिपककर शिकायत की गुहार लगाते थे। बचपन में कोई कुछ भी छीन ले मगर खाने की प्लेट एक ईंच भी दूर चली जाऐ तो जान निकल जाती थी, ऐसे में ये ईंतजार सहा नहीं जाता था लेकिन उसवक्त तो सिर्फ दो फीट के थे, अपनी तो चलती नहीं थी, पर इन सब के बीच जब पापा आते थे तो वो तुरंत दादी के एकदम पास बैठ जाते थे। वो जानबूझकर दादी के इतने करीब बैठते थे कि जिससे दादी बेचैन हो जाए। दादी को ये अजीब लगता था वो बड़ी मासूमियत से और खिलखिलाती हंसी के साथ उन्हें थोड़ी देर देखती रहती, फिर कहती क्यूं ऐसा कर रहे हो? भूख लगी है क्या? सुनो, चकली (चिड़िया)की मां को बोलो तुम्हारे लिए खाना भेजे। वो इतना बोलकर खाने लगती। पर जब मां ये सुनकर किचन से बाहर आती तो पापा सिर हिलाकर मना कर देते और जैसे ही दादी पापा की तरफ देखती वो इशारे में मां की शिकायत करते की देखो तो वो मुझे खाना नहीं देती। ये सुनकर दादी हल्का सा मुस्कुरा देती और अपनी आंखों के ऊपर हाथ से छजा बनाते हुए उनको गौर से देखती रहती। उनकी खिलखिलाती हंसी में थोड़ी उलझन दिखती थी, उसे यकीन नहीं आता था पापा की ज़ुबान पर मगर वो फिर भी एक बार फिर पूछ लिया करती थी कि बताओ तो तुम सच बोल रहे हो क्या? पर पापा उसे बड़े प्यार से तोतली बोली में कहते(वो दादी के साथ हमेशा तोतली बोली में ही बात करते थे), तो क्या मै झूठ बोल रहा हूं? आपको तो मुझ पर यकीन ही नहीं है कहकर वो अपना मुंह फुला लेते। ये सुनकर दादी हल्का सा मुस्कुरा देती और हमसे पूछ लेती, पर उस वक़्त तो हम भी थोड़े सत्यवादी हुआ करते थे। फिर दादी पापा के सिर पर टपकी मार कर उसे डांट दिया करती थीं। ये डांट सुनकर वो बड़े मासूम बनकर दादी के दोनों हाथ इकठ्ठे कर सर झुकाकर उनकी हथेली में अपना चहरा छुपा लिया करते थे। पापा का ये क्युट सा अंदाज़ दादी को बिल्कुल समझ नहीं आता था। वो थोड़ी उलझन भरी नजर से उन्हें देखते हुए हंसी रोक नहीं पाती थी और थोड़ी देर बाद अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगती थी मगर पापा उनका हाथ छोड़ते नहीं थे। उन्हें मज़ा आता था दादी को परेशान करने में और दादी की जान जाती थी। थोड़ी देर बाद दादी इतरा जाती थी और कहती थी कि बदमाश, मैं तुम्हे पसंद नहीं हुं ना? देखो मै मर जाऊंगी ना तो फिर लौट कर नहीं आऊंगी फिर कभी परेशान नहीं करूंगी फिर तुम मुझे याद करते रहना.. फिर अचानक से उनकी आंखों में हल्की सी नमी आ जाती फिर कहती, अब मै कहां ज्यादा दिन की महमान हूं? ज्यादा से ज्यादा एक दो साल.. बस उससे ज्यादा नहीं कटेंगे मुझसे... इतना कहकर वो हमेशा हल्की सी मुस्कान छोड़ देती थी। उनका बिना दांतों के मुस्कुराता हुआ चहरा मायूसी बयां करता था, जाने क्यूं वो इतनी मायूस होकर पापा के चहरे में उम्मीद भरे शब्द की तलाश करती थी?, पर उसे ऐसी बात करते देख पापा को अच्छा नहीं लगता था। वो हमेशा की तरह कहते, "अरे पगली तुम कभी मर सकती हो क्या? तुम तो सब को बहुत प्यारी हो, पता है तेरे जैसा दिल तो बड़े नसीबवाले को ही मिलता है, तुम तो लाखों में एक हो लाखों में। तुम्हें उठाते वक़्त तो उसका भी दिल भारी होगा , देख तभी वो नहीं आता है। " ये सुनकर दादी हंस पड़ती और पापा को आशीर्वाद देते हुए कहती भोलेनाथ तुमको सतबुद्धी दे । पापा ये सुनकर उनसे नाराज होकर कहते तो क्या मुझमें बुद्धि नहीं है? ये सुनकर दादी हंसते हुए कहती तुम थोड़े बदमाश हों बाकी सब ठीक है।दादी की ये मासूमियत सब का दिल छू.लेती थी।
पापा परिवार के सबसे छोटे बेटे थे इस लिए वो बड़े लाड प्यार से पले थे और दादी को सबसे प्यारे थे। वो दादी की डांट खाने के लिए कोई भी शैतानी करने से बाज नहीं आते थे। कभी संजय दत्त को सुनील शेट्टी तो कभी गावस्कर को कपिल देव बोलकर जानबूझकर उनको गुस्सा दिलाते,दादी थोड़ी देर उनसे बहस करती और पापा के ना मानने पर वो मन ही मन कहती इसको दिखता तो है नहीं और चश्मा पहनता नहीं, अब इसको कौन समझाए? बदमाश किसी की बात भी तो नहीं मानता। दादी की ये शिकायत सुनके हर कोई हस पड़ता था ।
दादी का दूसरा सबसे प्यारा मेंबर मेरा छोटा भाई था। उन दोनों का तो सिर्फ जिस्म अलग था मन तो दूध में शक्कर की तरह मिलता था। स्कूल आते ही वो सारा दिन उसी की गोद में खेलता रहता था और अपनी हर छोटे से छोटी खाने की चीज को दादी के साथ बराबर ईक्वली शेयर करता था न थोड़ा कम न थोड़ा ज्यादा। दादी के लाख मना करने पर भी वो ज़बरदस्ती खाना उसके मुंह में भर देता था। ऐसा लगता था जैसे उन दोनों के बीच का रिश्ता एयर टाइट कंटेनर की तरह है। हवा की पतली सी लहर भी उनमें दरार नहीं डाल सकती थी। और मैं? में घर की कैमरा मेन थी। बोलने की तो मुझे आदत ही नहीं थी, न मस्ती, न ज़िद, न कोई छेड़खानी करती थी, बस दादी के पास बैठकर उनसे कहानियां सुनती । पर बात चाहे कोई भी हो, दादी के कानों तक पहोचानी हो तो हर किसीको मुझे ढूंढने की जरूरत पड़ती थी। दादी बहुत ऊंचा सुनती थीं। उनसे बात करने के लिए हर कोई चीख चिल्लाहट से घर का माहौल खराब करता था पर वो समझ पाए इस बात में दम नहीं। जब दादी को समझ नहीं आता था तो वो मुस्कुराकर कहती "तुम क्या कह रहे हो ये तो मुझे समझ नहीं आ रहा है अब में क्या करूं?"
दादी तकरीबन पचासी के करीब थीं पर उनकी आंखे तब भी अखबार में छपे हुए छोटे से छोटे अक्षर बिना चश्मे के भी भेद पाती थी। पर उनकी श्रवण शक्ति लगभग खत्म हो चुकी थी। वो कम सुनती थी, कम बोलती थी, और कम जताती थी। वो बड़ी आत्मसंतोषी थी। उनकी निर्दोष मुस्कान और शीतल वाणी घर को चंदन के पेड़ जैसी सुकूनदेह और शीतल छांव देती थी। पर उनकी यही शीतलता बात को ना सुन पाने पर विपरीत असर डालती थी। मै लगभग चौथी या पांचवीं में पढ़ती थी तब से दादी को बात समझा पाती थी चाहे बात कितनी भी जटिल क्यूं न हो। मेरा उसे समझाने का तरीका चाहे दूसरों को समझ नहीं आता था पर वो अच्छे से समझ जाती थी।
मै हमेशा एक अच्छी ऑब्जर्वर रही हूं शायद तभी दादी कि डांट और गुस्से में छिपी घबराहट और शिक़ायत मै अच्छे से महसूस कर पाती थी। पापा को आदत थी दादी को रोज़ सताने की । वो ज़हर की बोतल के नाम पर जब दादी को हेयर ऑयल की बोतल या रस्सी दिखाकर कहते थे कि आज तो आपका आखरी दिन हैं। इसे एक बार पी लो फिर बात खत्म, ये सुनकर दादी बेशक गुस्सा दिखाती पर उसकी ज़ुबान से उतना गुस्सा निकल ही नहीं पाता था। उसे डांटते हुए उनकी ज़ुबान लड़खड़ाती थी और गला भारी हो जाता था। उनकी आंखों में गुस्सा नहीं होता था दरअसल शिक़ायत जताती थी वो। ये दादी और पापा की हररोज की बात थी पर जाने क्यूं वो पगली कुछ सेकंड के लिए इसे सच मान लिया करती थी। पापा दादी को बहोत प्यार करते थे। दादी को खुश करने के लिए वो हररोज उसके पास बैठकर कोई क्लासिकल गाना गाते थे। पापा को क्लासिकल म्यूजिक का बड़ा सौख था और वो बहुत बढ़िया गाते थे। लेकिन जब वो दादी के पास बैठकर गाते थे और बाद में पूछते थे कि कैसा लगा गाना तो दादी उनके कंधे पर अपना सर रख कर हंसते हुए बोलती की मुझे तो कुछ समझ नहीं आया तुम ये क्या कर रहे हो। दरअसल पापा को भी पता होता था कि दादी सुन नहीं रही है पर उसे हंसाने की ये उनकी कोशिश रहती थी। वो जब भी मुस्कुराती थी ऐसा लगता था जैसे दसों दिशाएं उनके अंदर समा गई हों और उसके चहरे से बाहर निकालने की भरपूर कोशिश कर रही हो। उनकी मुस्कान में एक अजीब सी ताज़गी रहती थी । उसे हंसते हुए देख जी करता था जाके भर लूं दो चार बोतल उनकी इस खिलखिलाती हसीं की, ताकि जब भी कभी चहरे पे मायूसी छा जाए तो उसे पी कर झट से मुस्कुरा पाऊं।
वो एक ऐसी शख्सियत थी जिसे न कुछ खोने का दु:ख था ना कुछ पाने की चाहत में बेचैनी, ना हारने से कोई फर्क पड़ता था ना जीत कर गुमान था। एक सीधी सादी जिंदगी थी जो वो जी रही थी। शायद तभी उनकी सरलता सब के दिल को छू जाती थी। उसकी मासूमियत की तारीफ सिर्फ मेरी जुबानी नहीं है बल्कि आज भी जब कोई उसके बारे मै बात करता है तो वो कहता है कि वो तो ईश्वर के घर से आयी है।
सो मच लव टू माई दादी
न भूतो, न भविष्यती।
