अश्वेत मृदा की वर्षा
अश्वेत मृदा की वर्षा
मृदा जैसे जिवन-ज्योत वेसै ही मृत्यु-चिन्ह। अश्वेत मृदा जैसे की भय, आखे खुली होने पर भी घना अंधकार। आगे चंद्रमा के प्रकाश मे दिख रहा विशाल वृक्ष तथा उस वृक्ष पर बांधा हुआ फासी का दोर एक वेदनादायी मृत्यु का स्मरण दे रहा था।
दृष्टी के आगे उस वृक्ष पर शव के लटकने का दृश्य तथा वह आत्मा को देहला देने वाली मृत्यु की आवाजे मन मे भय जागृत कर रही थी। मुख पर वर्षा मे झरने के प्रवाह समान बहता स्वेद उसके स्पर्श से मृत्यु की अनुभूति दे रहा था।
उस घने अश्वेत मृदा मे पैर रख कर खडे युवक ने निचे भुमी पर दृष्टि डाली। नीचे गड्ढे मे रक्त युक्त पडे हुए तथा स्वेद से पुर्ण युक्त सदानंद राव ने अपने कांपते हाथों से उस युवक की ओर संकेत करते हुए कहा,
“शाम, तुझे भी मृत्यु मिलेगी.......... तुझे भी।”
मुख पर लाल अग्नि समान भडकता हुआ क्रोध शाम की आंखों में प्रवेश कर चुका था। वक्र शिरोधरा कर आखो के नयन पट भी न झपकाए एक जैसे देख रहा शाम कहने लगा,
“आपका भय अधिक है प्रत्येक व्यक्ति के मन मे। कदाचित आपको समझने मे कठीनाई होगी परंतु कहने की इच्छा है, मुझे मृत्यु देने वाले तुम्हारे ही भय से गांव छोड कर भाग गए है।”
यह सुनकर सदानंदराव आश्चर्य की दृष्टि से आखों को छोटा कर शाम की ओर देखने लग गए।
“आपको यह मृदा चाहिए थी और कदाचित यह आपकी अंतीम इच्छा होगी जिसे मै अवश्य पुर्ण करुंगा।”
सदानंदराव की बुद्धि को कुछ सुझ नहीं रहा था, जिवन का प्रवास तथा भविष्य का ठिकाना उनकी बुद्धि से खेल रहा था।
“मुझपर विश्वास रखिए। मुझे लगता है आप को भी ग्रहण करना चाहिए अनुभव, अनुभव एक सत्य का।”
सदानंदराव का विद्युत गती से बढने वाला श्वास उनके शरीर की हलचल से स्पष्ट दिख रहा था।
“बुद्धी सत्यतः अधिक चतुर होती है इसी कारण मृत्यु के दर्शन होते ही आत्मा से प्रथम सहवास त्याग देती है।”
और यह मात्र सुनकर उस समय, उस दिन सदानंदराव की भयभीत तथा निशब्द हुए नयनो ने अश्वेत मृदा की वर्षा देखी।
