अंतर्द्वंद
अंतर्द्वंद
किसी पुराने जर्जर छत से टपकते बूंदों की तरह ही मेरे शब्द टपकते हैं, मेरी सोच के आखिरी परत से। और, शायद, इसी प्राचीनता के वजह से मेरे नग्न आँखों पर एक काली पट्टी बंध जाती है। सामने गहरा अंधेरा हो जाता है, ज्ञानशून्यता का बोध होता है, और मैं देख नहीं पाता आधुनिक समाज में फैले अत्याचार, संकीर्णता और अमानवता भरे कृत्यों को। मेरी दशा आधुनिक समाज से दूर बसे एक जर्जर और कुपोषित व्यक्ति के दरवाज़े पर बंधी भूखी गाय की तरह हो जाती है जो भूख, प्यास और धूप लगने पर कई एक बार चिल्लाने के बाद सिर्फ आँसू बहा सकती है। उसी समय मैं देखता हूं कठपुतलियों की एक समूह को हाथों में मोमबत्ती लिए हुए तो मेरी आँखें चमक उठती हैं किसी बंजर ज़मीन में उगे हुए एक सूखे घांस की तरह, जो चमक उठता है रवि के किरणों के पड़ने के बाद। मेरे मस्तिष्क के किसी छोटे कोने से एक सवाल उठता है, कि, "आखिर इससे होगा क्या ?" मेरी अंतरात्मा तुरंत उत्तर देती है मानो वो इसे इसके लिए पहले से ही तैयार हो, "जो आकृतियाँ तुम्हारे सामने हैं उन्हें अखबार के प्रथम पृष्ठ पर रहने की ललक भर है, क्योंकि यह खुद को जीवित, सामाजिक, वैचारिक, बुद्धिजीवी, राष्ट्रवादी साबित करना चाहते हैं। इसी के साथ सवालों की एक झड़ी लग जाती है, अंतर्द्वंद होता है, अधिकांश सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं, और फिर हमेशा की तरह मैं अपना टेलीविजन बंद करके सो जाता हूं।
