वो भी क्या दिन थे
वो भी क्या दिन थे
वो चहकती हुई सुबह,
वो सुबह का उगता हुआ सूरज,
वो शीतल पवन का आनंद,
वो घड़े का ठंडा पानी
वो भी क्या दिन थे....
वो मिट्टी के तवे पर बनी हुई रोटी ,
वो हांडी में बनी हुई सब्जी,
वो माँ का प्यार और पापा की फटकार
वो भी क्या दिन थे....
वो खेत की पगडंडी और बैलगाड़ी की सैर
वो बचपन के दोस्त और लगोरी,
खो-खो ,लुका छिपी उनके खेल,
वो मनभावन सावन और लहराते हुए खेत
वो भी क्या दिन थे....
वो मेरी कच्ची पाठशाला,
वो गुरूजी के पक्के संस्कार,
वो गुरूजी की फटकार ,
फिर भी हम करते थे उनका सत्कार
वो भी क्या दिन थे...
वो कच्चे घरों में सोना और
अनमोल सपनों में खोना,
बस था लालटेन चिमनी का साथ,
जब नहीं लगी थी बिजली हमारे हाथ
वो भी क्या दिन थे....
वो आँखें थी तीव्र, ढूंढ लेती थी
चीज़ो को अंधेरे में भी शीघ्र,
लोगो का दिमाग था कंप्यूटर ,
बस मन में ही गिन के
दिखा देते थे अपना कैलकुलेटर
वो भी क्या दिन थे....
खाके छाछ रोटी, रखते थे
सादा जीवन उच्च विचार,
ना था टीवी ,ना था मोबाइल ,
बस थी तो दादाजी की कहानियाँ