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kshitiz kamal Jain

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kshitiz kamal Jain

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सपने

सपने

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जागती रात की क्यारियां

जाने अब हम चले है कहाँ


टूटते अधूरे सपने

जाने अब वो मिलेंगे कहाँ


दिल, बिखरा ही जा रहा

खुद में सिमटा ही जा रहा

अब रातो को आँख लगेगी कहाँ


दिल में जकड़न बढ़ रही

आंसू सूखा जा रहा

अब खुद से राहत मिलेगी कहाँ


मैं खुद में डूबा जा रहा

अब जाने कब निकलूंगा कहाँ


अब मैं खोया जा रहा

ख्वाबो के बाजार में

जाने खुद से मिलूंगा कहाँ


गहरे मेरे ख्वाब है

गहरी ये सच्चाइयां

पल पल छल्ली कर रही

खुद से ये रुसवाईयाँ


नींदे छीने जा रही 

खुद से ये सच्चाइयां


चैन खोते जा रहा

बेचैन में होते जा रहा


किन किन बातो में भला

मेरी गहरी साख है

ऐसे क्यों तड़प रहा

मेरा काम, क्यों मुझसे इतना उदास है


मैं कब तक ऐसे जीते चलू?

बस तेरी ही एक आस है।




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