STORYMIRROR

Prashant Gurav

Others

2  

Prashant Gurav

Others

शराफत जो कभी जागीर हुआ करती थी।

शराफत जो कभी जागीर हुआ करती थी।

1 min
750

वाह...क्या ज़माना था,

शराफत नस-नस में समाई थी।


उलझी हुई ये ज़िन्दगी 

रिश्तों में भला मेल था।


ज़िन्दगी की इस चौखट में

अपना नाम ही काफी था।


रिश्तों की महफ़िल में

हर कोई अपना था।


अब वो ज़माना बदल गया

हर एक में 'मतलब' ने जगह ली


अब वो रिश्ते नहीं रहे

जो एक-दूसरे के लिए बने थे।


ऐ...ख़ुदा वो ज़माना, वो शराफत

वापस ले आओ


क्योंकि शराफ़त जो कभी

जागीर हुआ करती थी।



સામગ્રીને રેટ આપો
લોગિન

More hindi poem from Prashant Gurav