शोर में गुम
शोर में गुम
आखिर आ गए वो दिन, फिर से हर शाम सजेगा
फिर से हर दुकान दुल्हन बनेगी, फिर से हर गली गुनगुनाएगी
फिर से हर कोना जगमगाएगा, सिवाय...... उस आवाज़ के
सिवाय उस शोर के जो हर कान को चौका देता था
दुख इस बात का नहीं कि वो शोर कहीं खो गए
दुख तो इस बात का है कि इस बार
उन शोरों के बिना हम इंसान कहीं खो गए,
भूल गए हम उन शोरों के पीछे की हँसी को,
भूल गए कि जिस शोर को हमने दूषित मान लिया,
वो कहीं न कहीं, किसी न किसी का सहारा थे
वो यही दूषित शोर थे, जिसके दम पर हजारों घर के दीये जले,
वो यही दूषित शोर थे, जिनसे उन घरों की रोटी चलती थी,
वो यही दूषित शोर थे, जिनसे उन बच्चों की खुशियाँ पलती थी,
उन्हें इनका इंतज़ार होता था,
उनका इंतज़ार, इंतज़ार ही रह गया,
इंतज़ार हमारा भी रह गया, शोर में गुम होने का
बेशक! पटाखे दूषित होते हैं, काश हम पटाखों का
विकल्प खोज पाते उन्हें बैन करने से पहले।
