शहर
शहर
एक शहर ने दूसरे शहर से कहा कि
किसी भी मनुष्यों के द्वारा
किसी और मनुष्य पर
ज्यादा और बार-बार दमन किया जाए
तो ऐसा लगता है कि
ब्रह्माण्ड के किसी नियम
टूटने के सदृश जैसा है पर हो भी क्यों न
क्योंकि उस शहर के मिट्टी पर
उसे भी अपने स्वप्न को पूरा करने का
उतना ही अधिकार है जितना उसे है
उसने भी प्रथम कदम रखा जब शहर में
तो उसके लिए वही इतिहास वही भूगोल रहा
जहाँ उसने उस शहर को ग्रह,नक्षत्र,मार्तंड
और मृगांक सब मान रखा था
वही शहर उसके लिए जीने की तमन्ना थी
वो हर दिवस अपनी उम्मीद में
कुछ ना कुछ बढ़ोतरी कर रहा था
अकस्मात उस उम्मीद को छोड़कर
शहर की चारदीवारी में
अपनी स्मृतियों को कैद कर
एक बोलता हुआ पुतला बन गया है
इतना सहमा हुआ है कि
स्वयं के अस्तित्व को भूल गया है
और शहर से कहीं दूर
गंतव्य स्थान पर चला जाना चाहता है
जहाँ वे स्मृतियों से बाहर निकालकर जी सकें
पर उस दमनकारियों का ये नहीं पता
जो शहर हमें जितना देता है
उस से कहीं ज्यादा
हमें ब्याज के साथ लौटना पड़ता है।
