रुखसत
रुखसत
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अक्सर देखा मैंने परिंदों को
गुफ्तगू करते अपनी खिड़की पर,
कभी मेरे लफ्ज भी किसी की
कहानियां बयां करते थे!
करती थी बयां जब मैं तेरे साथ
हुआ करता था
कुछ किस्से, कुछ कहानियां!
अब भी वहीं कहीं
सिलवटों मे उलझी पड़ी है,
और जिन्दगी भी बड़ी खफा
सी हो गयी है, ना जाने क्यों?
शायद कुछ शिकायत थी उसे!
उस रात भी सोया नहीं था मैं
पलकें भी कुछ बोझल सी थी
अधजली सीग्रेट के कुछ टुकड़े,
कुछ पुराने खत बिखरे पड़े थे
टेबल पर!
बस रोशन दान से आती हल्की
रौशनी में तेरी
परछाईं का एहसास था!
यूं तो कुछ खत मेरे सिरहाने भी
रखे थे इस इल्म में ,
शायद तुम्हारे ख़्वाब की ताबीर ही
बता दे!
काश, काश मैं सुन पता ,
सुन पता तेरे वो आखिरी लफ्ज
जो जाते जाते तूने कांपते होठों से कहे थे
तेरे जाने का यकीन तो ना कर पाया मैं,
बस फ़लक से तेरे रूखसत होने की
वजह पूछ लेता हूँ !
