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Pradeep Kumar

Others

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Pradeep Kumar

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पहली बार टीवी देखा – एक यादगार पल

पहली बार टीवी देखा – एक यादगार पल

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पहली बार टीवी देखना
मैंने पहली बार टीवी देखा — वो भी अपने घर पर नहीं, बल्कि किसी और के घर।
यह भी एक सुंदर इत्तेफाक ही था।
हिमालय की गोद में बसा एक गाँव। गर्मियों की छुट्टियाँ थीं और मैं ननिहाल जा रहा था, वो भी पैदल।
शायद आठवीं कक्षा में रहा होऊँगा। मेरे लिए पैदल चलना कोई बोझ नहीं था, बल्कि एक यात्रा था —
रास्तों के पेड़-पौधे, हवा की गंध, मिट्टी की सौंधी बातें… सब कुछ मन को भर देते थे।
जेब में बस का किराया था,पर मन पैदल जाने के लिए तैयार।
शायद वही मेरा पहला “माई टाइम” था —जहाँ रास्ता भी मेरा था, और सोच भी मेरी।
मैं ननिहाल से लौट रहा था।शाम के पाँच बज रहे थे।आसमान बादलों से घिरा हुआ था।
बारिश की आशंका थी, और घर अब भी दो घंटे दूर।
बारिश होने लगी।भीगने से बचने के लिए पास के एक घर की ओर भागा।
क्या कहूँ, मैं भागा नहीं — भाग्य वहाँ पहुँचा।
वहाँ घर के लड़के ने मुझे पहचान लिया:
“अरे, तुम तो विष्णु राम जी के बेटे हो! कहाँ से आ रहे हो?”
“ननिहाल से,” मैंने जवाब दिया।
“जोरदार बारिश आने वाली है। तूफान भी ज़बरदस्त पड़ेगा।
प्रदीप, शर्माओ नहीं — अपना ही घर समझो।”
वो लड़का मेरे स्कूल में दो कक्षा आगे पढ़ता था,
और संयोग से मेरे पिताजी उसी स्कूल में अध्यापक थे।
बारिश से बचाव तो हुआ ही, साथ ही आत्मीयता से भरी एक रात भी मिली।

चमत्कार — उस घर में एक ब्लैक एंड व्हाइट ओनिडा टीवी था,
जो उसके बड़े भाई की शादी में दहेज के रूप में आया था।
मुझे लगा, जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूँ।चित्रहार आने वाला था।
तूफान से छत पर लगा एंटीना हिल गया था,पर उस परिवार ने मिलकर उसे ठीक किया।
रेखा का कोई गाना था शायद —और मेरे लिए वो स्क्रीन किसी जादू से कम नहीं थी:
    “सुन सुन सुन दीदी, तेरे लिए एक रिश्ता आया है...”
    “काला है, पर दिलवाला है...”
    “थोड़ा सा गंजा, थोड़ा मतवाला है...”
तस्वीरें हिलती थीं, बोलती थीं, गाती थीं —
और मैं उन्हें नि:शब्द भाव से देख रहा था।
उस रात मुझे खाना बड़े स्नेह से परोसा गया।
बातें हुईं — स्कूल की, पिताजी की, अध्यापकों की।
और उस अनजाने से घर में मुझे पहली बार किसी और के घर का रिश्तेदार जैसा स्वागत मिला।

रात भर मैं सोचता रहा —हवा में तस्वीरें कैसे आती हैं?
आकाश में क्यों नहीं दिखाई देतीं? टीवी पर कैसे दिख जाती हैं? तस्वीरें चलती कैसे हैं?
बोलती कैसे हैं? इतनी दूर से आवाज़ कैसे आती है?

इस दूर-दराज गाँव में टीवी कैसे पहुँच गया?
क्या ये लोग रोज़ टीवी देखते हैं?
कितनी सुविधाएँ हैं इनके पास!
क्या कभी हमारे घर भी टीवी आएगा?
घर जाकर जब मैं यह सब बताऊँगा —लोग यकीन करेंगे?
कुछ महीनों बाद वही लड़का और उसका छोटा भाई स्कूल में मिले।
छोटा भाई बेहद सलीके से कपड़े पहने हुए था, संयमी, सबसे अलग।
पर मैंने देखा — स्कूल के PTI (फिजिकल टीचर) उन्हें तंग कर रहे थे।
जैसे अच्छे कपड़े पहनना कोई जुर्म हो।
"तुम स्कूल छोड़ दो, सर्टिफिकेट लेकर चले जाओ..."ऐसी बातें।
वो लड़का आँसू लिए चुपचाप सुन रहा था।
शायद अपने जीवन में पहली और आखिरी बार, मैंने पिताजी से किसी के लिए सिफारिश की:
    "पिताजी, यही वो लड़का है —    जिसके घर मैं पहली बार टीवी देखा था।"
पिताजी मुस्कुराए, और PTI से बोले —"अरे, यह तो प्रदीप का दोस्त है — अच्छा लड़का है।"
शायद उसी दिन मैंने जाना —सच्चा उपकार वही होता है,
जो चुपचाप याद रखा जाए।
टीवी का पहला रोमांस
कुछ समय बाद, हमारे घर भी टीवी आया। पर जो पहली बार देखा था —
वो चित्रहार, वो बारिश, वो रेखा का गाना,  वो छत पर एंटीना ठीक करना,
और वो आत्मीयता भरी रात…
वो आज भी मन की स्क्रीन पर बार-बार रीप्ले होती है।
अब टीवी बहुत कुछ दिखाता है — पर पहली बार का चमत्कार अब कभी नहीं होता।



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