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Taikhum Sadiq

Others

4  

Taikhum Sadiq

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नींद

नींद

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आँखें कुछ भारी भारी है

पलकों पे ज़माने लरज़ां हैं

इक सम्त निगाहों में मेरी

कोई बैठ के लोरी जाती है

तंग होने लगती है सांसे

कोई रात उतरती जाती है

क्या बतलायें तुमको जानां

मुझे नींद क्यों नहीं आती है


बचपन का लम्हा बेड़ी बन

पलकों को जकड़ता जाता है

हौले हौले बिखरी आहें

किसी संदल चादर की मानिंद

मेरी आँखों पर छा जाती है

टूटी बिफरी सी कुछ कलियाँ

मेरे आँखों के इस सूरमे में

कोई रक़्स सा करती जाती है

क्या बतलायें तुमको जानां

मुझे नींद क्यों नहीं आती है


तक़सीम हुआ था जब से दिल

खुद अपने लहू की लकीरों से

बाज़ारों में बेबस प्यासा

कभी यारों से कभी पीरों से

इक शख्स की याद का बदल वो

अम्बर पर छाने लगता है

और रश्क़ में बैठा खुदा मेरा

मुझपर शोले बरसाता है

तब बीनाई खो जाती है

क्या बतलायें तुमको जानां

मुझे नींद क्यों नहीं आती है


अनपढ़ से कुछ अलफ़ाज़ मेरे

मुट्ठी भर जाहिल नज़्में है

कुछ चाक बदन के नुक़्ते है

कुछ रंज भरी आवाज़ें है

सब एक काफिले में ढल कर

मेरे पुश्तैनी घर से चल कर

मेरे पलकों पर सो जाते है

और रात की बाहें सुखन भरी

मेरे सीने में बस जाती है

क्या बतलायें तुमको जानां

मुझे नींद क्यों नहीं आती है


इक अक्स फलक के कन्धों पर

कुछ सदियों से पोशीदा है

कुछ रेज़ा रेज़ा ख्वाब मेरे

कुछ बेगाने अहबाब मेरे

एक सदा के रूप में ढलते है

वो सदा लिपटकर कानों से

बस यही सवाल दोहराती है

क्या बतलायें तुमको जानां

मुझे नींद क्यों नहीं आती है


मेरा हाथ पकड़ लो धीरे से

ये खौफ ज़रा थम जाएगा

मेरे ज़हन में जो ये दहशत है

इक लम्हे को रुक जायेगी

कई सदियों से इन आँखों ने

कोई सुन्दर ख्वाब नहीं देखा

हर शब् यहाँ जाग के काटी है

लेकिन महताब नहीं देखा


मुझे रोने पर मजबूर करो

शायद आँखें थक जाएंगी

शायद तेरे आ जाने से

पलकें बोझल हो जाएंगी

शायद फिर नींद परिंदा बन

जो बचपन में थी रूठ गयी

फिर से घर को लौट आएगी

मेरा हाथ पकड़ लो धीरे से

शायद अब नींद आ जाएगी.


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