मेरी माँ- मेरा होसला
मेरी माँ- मेरा होसला
छत की आँगन में बैठ कर
बारिश की टप-टप बूँद को देख कर
चाय की चूसकी लेकर
जब मेरी माँ मुझसे बातें किया करतीं थी
तो मैं उसे उसी लम्हे में जीया करती थी
चुपके से कुछ फुस फुसाकर
जब तुम मुझे जिंदगी के आयाम सिखाती थी
फिर उसी लम्हे में से कुछ पल चुरा कर
तुम मुझे जीना सिखाती थी
जीने की चाहत दिल में लिए रहती थी
क्या कहगें लोग ये सोचकर खुद को रोक लेती थी
क्या करूँ, क्या न करूँ ये एक पहेली सा था
लेकिन अक्सर तुम उसका जवाब बनकर
मेरे सामने आ जाया करती थी
माँ ही तो थी
जो हमें सपने दिखाती थी
बिन बोले ही वो मुझे पढ़ लिया करतीं थी
आँखों से आँसू चुरा लिया करतीं थी
होठों पर मुस्कान ला देती थी
खुद पर थोड़ा भरोसा रख
अक्सर ये सीख दिया करतीं थी
हाँ वो माँ ही तो थी जो कभी
थकती नहीं थी
आँखों में नमी और होठों पर मुस्कान
लिए रहती थी, पंख में न थी जान
लेकिन उड़ान भरने का हौसला रखती थी
खुद को भूलाकर दूसरे के सपनों को
संभालने में लगी थी
हाँ अब वो थोड़ा और बूढ़ी होने लगी थी
पर वो माँ ही तो थी जिसके माथे पर हमेशा
एक शिकन रहती थी