मैं औरत हूँ साहब !
मैं औरत हूँ साहब !
प्रेम बंधनों में बंध जाती हूँ
हर रिश्ता दिल से निभाती हूँ
बेगानों से परास्त नहीं होती कभी
बस अपनों से ही हार जाती हूँ
मुझे औरत कहते हैं साहब
सात फेरों का रिश्ता
सात जन्म तक निभाती हूँ
दर्द अपना जाहिर नहीं करती
उसकी कराह पर तड़प जाती हूँ
अपनी खुशी की परवाह नहीं,
उसकी खुशी पर अपनी
खुशी वार जाती हूँ
मुझे औरत कहते हैं साहब
अश्क आंखों में ले के मुस्कुराती हूँ
आसमान से ऊंची मेरी परवाज़
ना किसी के रोके रुक पाती हूँ
घर की चार दीवारी में रहकर भी
चाँद सितारों तक हो आती हूँ
मुझे औरत कहते हैं साहब,
हर इक दरिया पार कर जाती हूँ
दोगे जो मान सम्मान तो
अपना आप भी मिटाती हूँ
करोगे प्रतिष्ठा पर प्रहार तो
रणचन्डी भी बन जाती हूँ
मुझे औरत कहते हैं साहब,
अपने हक के लिए लड़ जाती हूँ
सहकर हल की नुकीली चोट मैं,
चीर अपना सीना अन्न उगाती हूँ
सहन शक्ति में ना कोई मेरा सानी
इसलिए धरा की बेटी कहलाती हूँ
मुझे औरत कहते हैं साहब,
हर घाव सह जाती हूँ ...
