लोगों के बदलते रंग

लोगों के बदलते रंग

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बदल गए मौसम की तरह वो भी,

या हम ही सूरज की तरह ढल गए,

गिर गए वो ही अपनी औकात से,

या हम ही जुबान से फिसल गए,

मुस्कुराहट के लम्हे उन्हें भी याद थे क्या?

या सिर्फ हम अकेले ही भूल गए,

वो ही नफरत के समंदर में नहाए थे क्या?

या हम ही शक के झूले पर झूल गए।


सिर्फ वो ही हमें समझ ना पाए,

या हम भी बन विचारों की सुरंग गए,

वो ही कसूरवार है क्या इस सब में,

या बदल कुछ हमारे भी ढंग गये,

सदाबहार गुलज़ार हुआ करते थे वो तो,

फिर भला क्यों बदल उनके रंग गये।


कोई नहीं ठहरा यहां किसी के लिए,

दुनिया है ये कोई हंसी ख्वाब नहीं,

सवालों की पोटलियां भरी पड़ी है,

मिलते मगर कहीं सटीक जबाव नहीं।


यूँ ही तो नहीं होगी दुनिया नाराज,

हम भी शायद कुछ बदल गये,

आखिर पता ये चला जनाब कि,

थे लग समय को ही पंख गये,

समय का पहिया घूमता रहा,

हम सब भी उससे बंध गए।



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