कुदरत की फितरत
कुदरत की फितरत
क़ुदरत की फितरत में तो पलपल मौज होती है
अपनी ही मस्ती में यारों कुदरत खो जाती है।
जब ढ़लता है सूरज, रात दस्तक देती है,
आसमां जगमग तारों से, रोज दिवाली होती है।
चांद, तारों के दीपमंडल की एक झलक जब मिलती है,
दुख दर्द की तत्क्षण मृत्यु, नयी उमंग खिलती है।
हवाएं गुनगुन करने लगीं मेघ जब खड़कते हैं,
कुदरत की लीला देख दिल प्रेमियों के धड़कते हैं।
भोर का साज ओढ़ हवाएं रोज बहती हैं,
रोज, रोज पलपल कुदरत, गीत गाओ कहती हैं।
बारिश जैसे लगती गिरने, झूम ऊठती नदियां झरने..
पेड़ , पौधे, वायु, जल,सारे मस्तमौला हर पल,
महफिल सतत सजाते हैं,संगीत अनूठा बजाते हैं।
कुदरत तो बस जाने, पल पल आनंद देना,
अब हम सीखें इससे कुछ, गर हमें है हर्ष पाना।
पेड़ लगाएं, फूल खिलाएं तो हम कहलाएंगे इंसान,
वृक्ष बचाए, धरती सजाएं तो ही कृपा करेंगे भगवान।