कोशिश...
कोशिश...
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कोशिश जारी है, चोट से उभरने की
नया कोई इल्जाम , बर्दाश्त नहीं होगा,
चाहे तो मना कर दें, अपने ताल्लुक को
फिर कोई झांसा, गवारा नहीं होगा...!
किसे मालूम था, हश्र मुहब्बत का
छोटा सा ये दीया, आग लगा देगा,
रौशन करने चले थे, जिंदगी के सफर को
सरे आम इज्जत, नीलाम कर देगा...!
कसूर मेरा ही था, जो एतबार कर बैठे
मंडई में हुस्न के, जज़्बात ले बैठे,
अब भी वक्त हैं 'रघू', सिख ले दुनियादारी
फकिरी में चंद अशरफियां, ले बैठे तो क्या बैठे...?
