ख़त
ख़त
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वो ख़त जो तूने लिखे थे पहले
मुझे मुक़म्मल सा मान कर के
वो ख़त जो तूने लिखे थे अक्सर
मुझे समझ कर तेरा जहाँ भर
वे आज भी मेरी नज़्म बनकर
मेरी कलम से यूँ बह रहें है
कि जैसे दरिया उदास होकर भी
बहता जाये बिना बताये
कि जैसे कलियों के नर्म होठों पे राग
छेड़े ठगा सा भौंरा
कि जैसे चंदा बहक के तुझको
लुटा सा तकता ही जा रहा हो
कि जैसे सिमटी सी रात ग़म से
पिघल रही हो, सुलग रही हो
