एक अधूरा ख्याल!
एक अधूरा ख्याल!
मैं आज ३० साल कुछ महीने का ,
ज़िन्दगी का बोझ लादे, दर ब दर
राह भटकता ,
अपने बचपन को देखता हूं,
हां बचपन को देखता हूं
ढूँढता हूं अपनी माँ के आँचल को ,
पिता के उस कांधे को,
जहाँ बैठकर आसमान छूने की ललक में ,
फिसलते, गिरते अपने जिगर के
टुकड़े के रोकने को
बहन के हाथ से रोटी के छीनने को,
बात बात पर माँ के डांटने को,
हाँ उस पल को
मैं आज ३० साल कुछ महीने का,
अपने बचपन को देखता हूं
ज़िन्दगी का बोझ लादे, दर ब दर
राह भटकता ,
मैं आज ३० साल कुछ महीने का
ढूंढ़ता हूं ग़लती करने पर माँ झाड़ू
लेकर मेरे पीछे दौड़ती ,
अपने को ही कोसती
दौड़कर दादी की टांगों से चिपक जाता ,
माँ उनसे मुझे छुड़ाती और कहती ,
चल हठ कल मुँही, कोई अपने जिगर के
टुकड़े को मरता है किया
मुस्कुराकर उनको बाँहों में भर लेता
लेकिन आज कुछ ग़लत करता हूं
तब कोई डांट लगाने वाला नहीं है ,
कोई झाड़ू लेकर मेरे पीछे दौड़ने
वाला नहीं है ,
बात बात पर तू ऐसी हरकत मत किया कर
मेरा तो कलेजा ही निकल जाता है
कोई कहने वाला नहीं है
मैं आज ३० साल कुछ महीने का,
अपने बचपन को देखता हूं
ज़िन्दगी का बोझ लादे, दर ब दर
राह भटकता ,
मैं आज ३० साल कुछ महीने का
रुकना लाज़मी है किसी कि आवाज़ सुनकर ,
ये हकले ....
जब आँगन में खेला करते थे, एक दूसरे
पर तानाशाही कसा करते थे
एक दूसरे का गलेबान पकड़कर रेल बना
करते थे ,
वो झगड़े, वो सपेरा का खेल,
वो तालाब में भैंस, गाय कि पूँछ
पकड़कर दूर तक तैरना
सब आँखों के सामने तैर जाता है
पानी कि तरह आज कि भाग दौड़ में
ढूंढने कि कोशिश करता हूं
दर व दर राह भटकता ,ज़िन्दगी का बोझ लादे
मैं आज ३० साल कुछ महीने का,
अपने बचपन को देखता हूं
